Highlights:
- सामाजिक विषमता को दूर करना ही है मूलभावना का मुख्य लक्ष्य, वैश्वीकरण के दौर में सामाजिक प्रतिष्ठा जाति से नहीं अर्थ से है तौली जाती। इस बदलते दौर के चलते गरीबी भी आरक्षण की हकदार।
- महिलाओं को भी अपने अधिकारों के प्रति उचित न्याय की बढ़ीं उम्मीदें, महिला आयोग को भी मिले संवैधानिक दर्जा
अलका शुक्ला
लगभग तीन साल पहले 2019 में केंद्र सरकार ने ग़रीब सवर्णों को 10% आरक्षण का अधिकार दिया। इस आरक्षण के विरोध में कुछ जनहित याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं। जिनमें इंदिरा साहनी मामले के 50% से अधिक आरक्षण न देने के मामले के साथ मूल संविधान में आरक्षण की बात सामाजिक न्याय पर आधारित थी को आधार बताकर जनहित अभियान संगठन के साथ 40 से भी अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुईं। जिसपर 7 नवंबर 2022 को सुप्रीमकोर्ट की तरफ से भी एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया। जिसमें पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत के आधार पर केंद्र सरकार के 103/124वें संविधान संशोधन पर अपनी मुहर लगा दी। सीजेआई ललित और जस्टिस रवींद्र एस भट ने इस आर्थिक आरक्षण वाले केंद्र सरकार के फैसले को अवैध ठहराया जबकि तीन अन्य जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, बेला एम त्रिवेदी और जेबी पारदीवाला ने इस कानून को सही बताया।
इस सुप्रीम फैसले के आते ही राजनीतिक गलियारों में भी इसके अलग-अलग मायने निकाले जाने लगे। क्या गरीब सवर्णों के आरक्षण और संविधानिक मूल भावना पर टकराहट है ? या केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान की मूल भावना पर खरा उतर रहा है? क्या इसके लिए आरक्षण और संविधान की मूल भावना के मूल में जाकर ऐसा ऐतिहासिक निर्णय दिया गया है?
“आरक्षण” अपने बाल्यरूप में बहुत सुंदर, मासूम और इस महान देश के लिये आशाओं के हिरण्यगर्भा के रूप में संविधान सभा के प्रणेताओं के समक्ष था।
अवाम ने भी इस मासूमियत को सम्मान दिया, प्यार दिया और राष्ट्र के विकास व खुशी के लिये इसे सहज स्वीकारा भी।
भेदभाव और छुआछूत की खाईयां जो ब्रितानी शासन में सुरसा के मुँह की तरह फैलती जा रहीं थीं उन पर शुरुआती दौर में सबने मिल-जुलकर कम करने का प्रयास भी शुरू किया और सफलता भी अर्जित की। इस प्रयास में अकेले एक दो नाम लेना उचित न्याय नहीं होगा, आजादी की जंग के साथ-साथ एक शोषित वर्ग को मुख्यधारा में लाने की भी कवायदें तेज थीं।
जिसमें कुछ पिछड़े शोषित नेताओं के साथ सवर्ण नेताओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इतिहास ने खुद भी मूर्त रूप ले भारत में मानवता की नयी इबारत लिखने के लिये सुनहरी कलम उठा ली।
यह दौर ऐसा था जब वैदिक काल की कर्म आधारित जातियों का व्यवस्थित बँटवारा, वंशागत होते हुए अव्यवस्थित और मानवता से ह्रासित हो चुका था। अभिजात्य वर्ग के हाथों में समाज की बागडोर तो पहले से ही थी।
लेकिन उनका क्रूरतम रूप जो मुंशी जी व उनके समकालीन लेखकों की उपन्यासों व रचनाओं में दिखता है वो वाकई कष्टदायी है। लेकिन इतिहास इसका भी साक्षी है कि भारत में कई जगह अलग-अलग कालखंडों में भी शोषित और पिछड़े वर्गों ने शासन भी किया। तुर्कों व मुगलों के आने के बाद भी कई राज्यों में पिछड़ों का शासन रहा, सम्मान रहा। पिछड़े वर्ग के संत महात्माओं का भी समाज में एक गौरवपूर्ण स्थान था, सम्मान था।
धार्मिक ग्रंथ जो पहले श्रुति कहलाते थे शुरूआती दौर पर लिपिबद्ध नहीं थे। शुंगकाल के आसपास कई हिन्दू धर्मग्रंथ लिपिबद्ध हुए। तो उनमें लिखने वाले की सहज स्वभाव का झलक जाना आदमियत की ही एक कड़ी है। सभ्यता के जन्म के साथ ही धर्म भी जन्मा। क्योंकि एक समाज, समुदाय व देश बिना कानून के चला पाना बड़ा ही दुष्कर है। तब इतनी सेनाएं व सिपाही जैसी कोई संस्थायें भी नहीं थी। बस कबीले थे। धर्म ही उस दौर में कानून का कार्य करते थे। आर्यों की अनार्यों पर विजय का इतिहास भी सबने पढ़ा। आर्य व अनार्यों को अब साथ रहना था। कई धर्मग्रंथों को इसीलिये रचा गया कि आर्य की श्रेष्ठ जातियाँ प्रधान रहें। अनार्यों में ( हड़प्पा सभ्यता के अनुसार वो व्यापारी, शिल्पकार व कृषक थे) कुलीन व्यापारियों को तीसरे वर्ण का दर्जा देकर शेष को सेवा के कार्यों में विभाजित कर दिया। अनार्यों में पहले से अमीर रहे लोगों के व्यापार का एकाधिकार बना रहने से भी बहुत ज्यादा विरोध उत्पन्न नहीं हो सका। शेष लोगों को अपने दैनिक जीवन व गृहस्थ का पालन करने के चलते विरोध की चिंगारी मन ही मन दबानी पड़ती है। कालांतर में आर्यों व अनार्यों की संस्कृतियों, परंपराओं व देवी-देवताओं के संगम से हिन्दू धर्म का उदय हुआ। जहाँ आर्यों के मुख्य देवता इन्द्र, अग्नि, वरुण, राम थे वहीं अनार्यों के मुख्य देवता शिव-शक्ति, हनुमान, जामवंत और बहुत से स्थानीय देवता थे। उस समय के समाज के शिल्पिकारों (दोनों पक्षों के श्रेष्ठ मुनियों व विद्वजनों) ने आज की संविधान की तरह ही बहुत से धार्मिक ग्रंथों को मूर्त रूप दिया जिससे समाज व राष्ट्र को नियमित रूप से चलाया जा सके। किन्तु कुछ कमियाँ रह गयीं, जिसने युगों तक धीरे-धीरे इतना बड़ा रूप धारण कर लिया और वह विश्व गुरु का अभिमान करने वाले भारत पर कलंक के रूप में दिखने लगी।
यह प्रक्रिया भारत में सदा से जीवंत रही। शासक बदलते गये सामान्य जन शोषित और शोषित वर्ग और अधिक शोषित होते गये। शोषण का यह क्रम आक्रांताओं के बदलते रहने के साथ बढ़ता ही गया। शासक विरोध को शांत करने के उद्देश्य से उसी प्रकार अपने व अपने समाज से कम मगर उनके व उनके समाज से कुछ उन्हीं के क्रमानुसार कम तवज्जो देने का सिद्धांत अपनाये हुए थे।
जिससे आक्रांताओं का शोषण हिन्दुओं के क्रीमीवर्ग पर कम पड़ा व दलितों पर शोषण कहर बन कर टूट पड़ा।
ज़मींदारी की व्यवस्था लागू होने के बाद शोषण अपने चरम पर आ गया। ऐसे ही शोषणों के चलते भेदभाव की एक बड़ी लंबी खाई खिंच गयी। यह सब पुराने जमाने के कानून पर कुछ कमियों के बदौलत रहा। मानवीकृत ऐसी हर चीजों में कुछ न कुछ कमियां रह ही जाती हैं जिस पर समयानुसार सुधार करना अतिआवश्यक हो जाता है।अंग्रेज और मुग़ल हिन्दुओं को अपनी दमनकारी नीतियों से अलग तो न कर पाये पर अलगाव का बीज जरूर बो गये हैं। जिस पर आज की राजनीति बाखूबी उसकी खेती करना सीख गयी है।
उत्तर मुगल काल से अंग्रेजों के शासन व फिर आजादी से मंडल आयोग तक का सफर भारत की एक बड़ी जनसंख्या ने बड़ी ही दुश्वारियों से तय किया।
उनके साथ सम्मान व समाज में समता लाने के उद्देश्य से “आरक्षण” नामक ब्रह्मास्त्र की रचना हुई।
अंग्रेजों के शासनकाल में ही कुछ रजवाड़ों ने आरक्षण प्रावधान का आगाज कर दिया था। भले वो अपने संकुचित रूप में ही रहा हो किन्तु आरक्षण का बीज रोपित हो चुका था।
1895 में सर्वप्रथम मैसूर राज्य ने मिलर कमीशन गठित कर शिक्षा एवं सरकारी नौकरी में कुछ पद पिछड़ी जातियों के आरक्षित किया था। फिर 1901 में कोल्हापुर में शाहूजी महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गयी। इसके बाद मद्रास में भी यह लागू हुआ। 1928 में बाम्बे सरकार द्वारा गठित एक समिति ने पिछड़ी जातियों के तीन वर्ग बनाये आदिम, दलित व पिछड़ी जातियां। 1929 में साईमन कमीशन ने ही संविधान में उल्लेखित ‘अनुसूचित जनजाति व अनुसूचित जाति’ शब्द को गढ़ा। आजादी के उस काल और परिस्थिति के अनुसार पंडित नेहरू व अंबेडकर जी ने आरक्षण को सामाजिक मानना ही यथाउचित समझा। जबकि आर्थिक आरक्षण या गरीबी को उन्होंने सामाजिक न्याय से परे रखा।
तब का दौर ही ऐसा था कि समाज में सुधार की आवश्यकता ज्यादा थी। उस समय अर्थ प्रधान नहीं था। समाज में शोषितों को मुख्य धारा में लाने के लिये समता की जरूरत थी जो कि आरक्षण की राह पर चलकर पूरी होनी थी। उस वक्त के दौर में राजपूत आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक ताकतवर तो थे ही, गरीब ब्राह्मण तो कम ही थे पर जितने थे समाज में उनकी इज्जत एक धनवान पिछड़ी जाति के व्यक्ति से कहीं अधिक थी। ऐसे हालातों से रोज इत्तेफाक रखने वाले संविधान सभा के नेताओं को वर्तमान में जो उचित दिखा उसे संविधान में जगह दी।
जिस समय संविधान के भाग तीन मूलाधिकार पर अनुच्छेद-15 पर बहस हो रही थी। उसी समय देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा था कि ” सामाजिक पिछड़ेपन को आर्थिक पिछड़ेपन से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।” उनका मानना था यहाँ पिछड़ेपन की प्रकृति सामाजिक है और ऐसे लोगों के साथ अतीत में बहुत नाइंसाफी हुई हैं।
संविधान सभा के साथ संसद में भी सवर्णों की संख्या ज्यादा रही पर सब ने एकलय में देश को मजबूत करने के लिये शोषित वर्ग को मुख्यधारा में लाने का कार्य किया उस वक्त उन्होंने कोई चालाकी नहीं दिखाई क्योंकि जो दिख रहा था जो उचित न्याय था उस वक्त उन्होंने वही किया। राष्ट्रहित के लिये, मानवता के लिये उन्हें जो दिखा वो ईमानदारी से लागू किया।
डाॅ. अम्बेडकर साहब ने भी यही बात कही कि शोषित लोग आर्थिक वर्ग न होकर जातियों का एक संग्रह हैं। संविधान के किसी भी बिंदु में तब यह नहीं था कि सामाजिक न्याय का संबंध गरीबी से जोड़ा गया हो।
भविष्य की सटीक परिकल्पना भला कौन कर सका है। मानवीकृत हर चीज में कालांतर में कुछ न कुछ गड़बड़ियां जरूर निकल आती हैं अतः परिवर्तन करने का रास्ता भी सदैव खुला रखना चाहिये। परिवर्तन तो प्रकृति का भी नियम है।
कल के दौर में क्या जरूरतें थीं आज के दौर में क्या हैं? इसमें परिवर्तन होता ही रहता है। यही प्रकृति का नियम भी है। संविधान सभा में उपस्थित विद्वजनों की दूरदर्शिता से ही संविधान के भाग 20 पर आर्टिकल 368 में संविधान संशोधन का रास्ता कुछ शर्तों के साथ खोल दिया गया। जिसपर देश के दूसरे गणतंत्र दिवस से ही इस पर संशोधन की जरूरत समझ आन पड़ी। इतनी विविधताओं व बड़ी जनसंख्या वाले देश में अचानक सब कुछ सही हो भी नहीं सकता था, उसी सही के लिये संविधान निर्माताओं ने संविधान में बीसवें भाग को अपनाकर संसद को असीम शक्तियाँ दे दी। लेकिन बहुत ही बुद्धिमानी के साथ संविधान के भाग -3 मूलाधिकार को संरक्षित करने व प्रवर्तित करने की शक्ति उच्च व उच्चतम न्यायालय को भी दे दी। जिससे कोई तानाशाही शासक अवाम पर मानवता का हनन न कर सके।
अपातकाल के दुरूपयोग के बाद माननीय न्यायालय ने ही आदेश दिया कि किसी भी स्थिति में अनुच्छेद 20 व 21 पर किसी भी तरह का किसी भी स्थिति में कोई प्रतिबंध नहीं लगेगा। हाँ! संसद मूलाधिकार की मूलभावना से इतर अगर कोई बदलाव करती है तो सुप्रीम कोर्ट उस पर मंथन कर सकती है। आजादी के बाद संसद ने मूलाधिकार में भी कई उपबंध जोड़े हैं व सम्पति के अधिकार का निरसन भी किया है और माननीय न्यायालय के अनुसार वो संविधान की मूल भावना को मजबूती दे रहे थे अतः उन्हें मूलाधिकार में जगह मिली।
मंडल आयोग-1 व 2 दोनों की सिफारिशें भी संसद ने मूलाधिकार के 15 व 16 अनुच्छेद में उपबंधित किया। क्योंकि संविधान की मूलभावना यहाँ भी बलवती थी।
आर्थिक आधार पर आरक्षण का आगाज मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद ही हो गया था। किन्तु तब वो अपनी मंजिल तक पहुँचने में कामयाब न हो सका। इसके बाद भी कुछ राज्यों के द्वारा ऐसे प्रयास चलते रहे जो संवैधानिक न होने के कारण रद्द होते गये। क्योंकि ये मूलाधिकार से प्रदत्त विषय था और संविधान मे इसके लिये कोई संशोधन नहीं किया गया था अतः उनका माननीय उच्च व उच्चतम न्यायालय द्वारा निरस्त होना उचित था।
किन्तु मोदी सरकार ने जिस तरह से ऐतिहासिक फैसला लेते हुए संविधान संशोधन कर आर्थिक आरक्षण के युग का सूत्रपात किया वह राष्ट्रहित व समाज को एक नयी दिशा प्रदान करने वाला है।
आर्थिक आरक्षण समाज में पनप रहे आक्रोश को शांत कर, भेदभाव को कम कर राष्ट्र में अमन व विकास की पताका फहराने के लिये सही समय पर उठाया गया सही कदम है।
आज के ग्लोबलाईजेशन दौर में अर्थ ही सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान बन चुका है जिसके पास अर्थ है उसका ही सम्मान है वो चाहे किसी भी जाति से क्यूँ न हो!
अर्थहीन व्यक्ति आज के दौर में निरीह है वो चाहे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय व जाति से क्यों न हो?
बाबा साहेब ने गणतंत्र लागू होने के पर्व पर एक अभिव्यक्ति व्यक्त की जो सदा प्रासंगिक रहेगी बस किरदार बदलते रहेंगे। उन्होंने कहा था, ” जनवरी की 26 तारीख को हम अंतर्विरोधों के युग में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समता और सामाजिक-आर्थिक जीवन में विषमता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति की कीमत एक वोट के आधार पर आँकेंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जगत में विषमतामूलक संरचनाओं के कारण हम एक व्यक्ति एक मूल्य के उसूल को नकारना जारी रखेंगे। अंतर्विरोधों की इस गिरफ्त में हम कब तक फँसे रहेंगे? सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में हम समता को कब तक ठुकराते रहेंगे? अगर हमने लंबे अरसे तक समता को अस्वीकार करना जारी रखा तो इसका नतीजा हमारे राजनीतिक लोकतंत्र के संकटग्रस्त होने में ही निकलेगा।”
यह बातें उस समय के सामाजिक हालात के लिये कही गयीं। उनकी बातों को गंभीरता से लेकर समता को बढ़ावा देने के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया। और उसी आरक्षण ने आज समाज की दशा और दिशा दोनों बदली हैं। किन्तु आरक्षण को परिवर्तनीय और गतिक होने की भी जरूरत है क्योंकि आरक्षित वर्गों का अधिकार अब उनके ही वर्ग के कुछ अगड़े आरक्षित ही उठा पा रहे हैं। सही न्याय व उचित समता के लिये संविधान की मूलभावना के लिये सरकारों को वोटबैंक की राजनीति छोड़ उचित प्रयास करने होंगे जिससे राष्ट्र में विद्रोह व भेदभाव की स्थितियां पुनः न उत्पन्न हों।अतिपिछड़ी दलित जातियां व अतिपिछड़ी जातियां आज भी समता के उस मुकाम पर नहीं आयीं वजह अब सामाजिक नहीं रह गयी मुख्य वजह अब आर्थिक ही है अगर उनके पास अर्थ होता आय के स्रोत होते तो वो किसी भी मामले में सामाजिक पिछड़े न होते।
यही स्थितियाँ अब गरीबी की हैं वो अब चाहे किसी भी धर्म व वर्ण का गरीब क्यों न हो वो ही समाज की मुख्यधारा से बाहर है। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में गरीबों को आरक्षण संविधान की मूलभावना को मजबूती ही प्रदान करता है।
समय के पहिये के साथ दौर बदला व परिस्थितियाँ भी बदलीं। गरीबी तो सदा से अभिशाप रही है। सहस्त्राब्दियों से सामाजिक न्याय बस उन्हीं को कदापि नहीं मिला वो चाहे किसी भी वर्ण के गरीब क्यों न रहें हों? बाकी तो हर जातियों का अपना गौरवशाली इतिहास भी रहा है। हर उच्च व निम्न जाति ने भारत के कोने-कोने में शासन भी किया। खुद को निम्न समझने वाली कई जातियों से चक्रवर्ती सम्राट भी हुए हैं। रामायण काल व महाभारत काल के बाद महाजनपदों वाले युग में भी गौतम बुद्ध के पहले व उनकी शिक्षाओं के बाद भी विभिन्न जातियों के लोग राजा भी बने, संत भी बने और तमाम प्रसिद्ध साहित्यकार भी बने। इतिहास इनका साक्षी है। किन्तु गरीबों का इतिहास सदा से दर्द भरा रहा वो चाहे किसी भी जाति या धर्म के रहें हों।
कहीं-कहीं कभी-कभी कई बार गरीबी मानव होने का भी अधिकार छीन लेती है। इस महाकष्टकारी अवस्था को यदि सम्मान देने व उसे आगे बढ़कर खुशियां पाने की राह दी जा रही है तो वह वाकई में मानवता के अध्याय में एक मील का पत्थर साबित होगी। यह कार्य केवल लौह इरादे और मानवता के ओज से परिपूर्ण व देश का सर्वथा कल्याण चाहने वाला व्यक्ति ही कर सकता था। भारतीय राजनीति में इस असंभव कार्य को मोदी सरकार ने कर दिखाया। वजह राजनैतिक रही हो या वोटबैंक की। तो इस वजह को अन्य सरकारें भी अपने नाम कर सकतीं थीं पर यहाँ तो दुःखड़ा यह है कि सबके वोटबैंक अलग-अलग हैं। अब कोई दल तो आगे आये और सभी भारतीयों को वोटबैंक समझकर उनको तवज्जो दे।
माननीय सुप्रीम कोर्ट में आर्थिक आरक्षण के खिलाफ याचिका दायर हो चुकी है। कुछ विशेषज्ञ बता रहे कि मूलढांचे से खिलवाड़ हो रहा है।
आखिर संविधान की मूल भावना का वह मूल शब्द क्या है? समता ! मतलब बराबरी, प्रत्येक नागरिक सामाजिक रूप से समान हो जायें। आज के वैश्वीकरण के दौर में अर्थ ही सब कुछ है उससे ही तीनों प्रकार का सम्मान है। सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय भी उसी के पास है। अब वो दौर गया जब उच्च जातियों के पास समाज का ताना-बाना रहता था वही प्रधान थे। आज आरक्षण और ग्लोबलाईजेशन ने भारतीय समाज को भी आर्थिक समाज के नजरिये में बदल दिया है। अब ऊँच-नीच अमीरी और गरीबी से है न कि सामाजिक और जातिगत है।
उस समय समता के लिये नीति नियंताओं की यह मंशा कि आरक्षण का आधार सामाजिक हो आर्थिक नहीं उस दौर की सामाजिक विषमताओं की वजह से था। विषमताओं को पाटना ही उनका लक्ष्य था। किन्तु कई बिंदुओं पर राज्य सरकारों व केंद्र सरकार का भी ढुलमुल रवैया दिखता रहा है तथा न्यायालय भी स्वविवेक से फैसला देने में पीछे रहा है।
मूलाधिकार का ही अनुच्छेद 15 (3) यह प्रावधान करता है कि राज्य के द्वारा महिलाओं और बच्चों के उत्थान के लिये विशेष प्रावधान, समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।
क्योंकि वैदिक काल से महिलाओं की भी स्थिति पुरुषों से पिछड़ी और बदतर रही। सरकारें कई क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण के लिये प्रयास भी कर रहीं हैं और कई जगह जाने-अनजाने में चूक भी कर रहीं हैं। महिला किसी भी वर्ण की हो पुरुष समाज प्रधान में वो सदा से दलती आयीं हैं ऐसी स्थिति में सामान्य वर्ण की महिलाओं से चाहे वो किसी भी धर्म की हो भेद करना कहाँ तक जायज है? कहाँ तक न्यायोचित है? सी-टेट, यूपीटेट व अन्य कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ सरकारी नौकरियों में इनके साथ उचित न्याय कहाँ हो रहा था। सामान्य के पुरुषों की भाँति ही सामान्य की महिलाओं का भी कट आफ रहता रहा। टेट जैसी परीक्षाओं में सामान्य की महिला 89 अंक लाकर बाहर व पिछड़े वर्ग का पुरुष 82 अंक लाकर योग्य। समाज व राष्ट्र को संबल देने वाली समाज में सदा से पिछड़ी इन महिलाओं के साथ ये अन्याय क्यों?
न्याय व समता की बात करने वाले राजनीतिक दल व न्याय देने वाले महिला आयोग को आज तक संवैधानिक दर्जा क्यों नहीं दे सके?
ऐसा लगता है महिला सशक्तीकरण के नाम पर केवल ढुलमुल रवैया ही अपनाया जा रहा है।
वर्तमान सरकार के सुधारवादी तरीकों से उम्मीद थी कि राष्ट्रीय महिला आयोग जो कि अभी भी सांविधिक ही है को संवैधानिक दर्जा मिल जायेगा। किन्तु इस महत्वपूर्ण व संवेदनशील विषय पर सरकारों की ध्यान न देने की वजह क्या है? महिलाओं का अपने अधिकारों के प्रति जागरुक न होना ही महिलाओं को बेबस बनाये है।
मोदी सरकार ने 123 वें संशोधन से राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को तो संवैधानिक दर्जा दे दिया। 103/ 124 वें संशोधन से आर्थिक आरक्षण दे दिया। सरकार की इन सुधारवादी पहलों से राष्ट्रीय महिला आयोग के भी संवैधानिक होने की उम्मीदों को पर लगे हैं। आरक्षण का आधार सामाजिक माना जाये या आर्थिक या दोनों ही जिससे भी समता की परिभाषा मजबूत होती हो, राष्ट्र की अखंडता व उसके विकास के मार्ग खुलते हों उसे ही राष्ट्रहित के लिये अपनाना न्यायोचित है। किन्तु महिलाओं को इन्हीं आरक्षण तक सीमित न रखा जाये, उनके लिये शिक्षा, नौकरी व राजनीति में उचित रूप से विशिष्ट अवसर दिये जायें। तभी समता और न्याय की परिभाषा को उचित बल मिलेगा।
15 Comments
बहुत ही गंभीर हुआ बहुत ही शानदार लेख हार्दिक शुभकामनाएं
आरक्षण और संविधान की मूल भावना पर आधारित बेहतर आलेख, इस आलेख के माध्यम से और भी बहुत सी नई-नई जानकारियां प्राप्त हुई उसके लिए आभार।।🙏🌹🙏
Regards thank you for explaining the basic spirit of reservation, economic reservation and Indian constitution in simple, easy and best words and for giving the best information.🙏🙏
महिला आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए। महिला सशक्तिकरण और समानता की दिशा में अभी भी बहुत काम और लंबा रास्ता तय करना है।
महिला आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए। महिला सशक्तिकरण और समानता की दिशा में अभी भी बहुत काम और लंबा रास्ता तय करना है। बहुत सुंदर आलेख अच्छी जानकारी।
Women’s commission should get constitutional status. There is still a lot of work and a long way to go in the direction of women empowerment and equality. Choose a very important topic,I like your thoughts.
I always thought reservation only given by financially not by castism
नई और जरूरी जानकारियों और बेहतरीन शब्दों के धारा प्रवाह के कारण ही इतना बड़ा आलेख हम बिना छोड़ें पसंद करते हैं। सिविल सर्विसेज के मेंस में जीएस सेकंड पेपर और निबंध के लिए भी उपयोगी। ‘महिला आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए’ इसके लिए जो आपने कारण लिखें हैं वो कारण भी वाकई महत्वपूर्ण हैं। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए।
इस आरक्षण और संविधान पर क्या संक्षिप्त विचार है, हमें इस देश में जागरूकता फैलाने के लिए और ऐसे लेखों की आवश्यकता है, मुझे उम्मीद है कि मानवता लोगों को वैसे ही रास्ता देगी जैसे वे हैं और सभी को समान अधिकार मिले, चाहे उनका धर्म, जाति, गरीबी या कोई भी दर्जा कुछ भी हो, इसलिए वे कहते हैं कि कलम तलवार से भी शक्तिशाली है,भगवान आपका भला करे, लिखते रहिये धन्यवाद .🙂
Bahut sundar vichar🌹🙏
Bahut sundar vichar🌹🙏
Bahut sundar vichar🌹🙏 ..samta ek behtreen parikalpna h…
Bahut sundar vichar🌹🙏 ..samta ek behtreen parikalpna h…
EWS aur Indian constitution ki ek achhi jaankari.. Sadar Aabhar🙏🌹🌹
EWS aur Indian constitution ki ek achhi jaankari.. Sadar Aabhar🙏🙏