समीना खान
स्वाहा होना, स्वाहा होना नहीं होता। स्वाहा होना, स्वाहा होना हो भी नहीं सकता। हां! ये तप होता है, शुद्धि होती है, या कहें परिवर्तन होता है। परिवर्तन ही होगा। शायद क्षण भर का या शायद सदियों का।
कहां की मिटटी के ज़र्रे थे, जिन्हे कुम्हार के हाथों ने गढ़ा था। इस मिटटी को जब पानी में सानने के लिए वह छान रहा था तो दुनिया को लगा होगा कि इससे बारीक मिटटी ही छान कर दूसरी ओर जाएगी। दुनिया की नज़र में ऐसा ही दिखना था क्योंकि वहां मौजूद हवा को उस पानी की आमेज़िश(मिलावट) में किसी ने देखा ही नहीं। चाक पर घुमाते और पानी चुपड़ते हाथों के साथ कुम्हार के विचार भी तो उसमे घुल रहे थे। मिट्टी के लोंदे में एक सृजन हो रहा था। इस रूप दिए जाने में फिसलती उँगलियों और चकरघिन्नी बने चक्के की ही भूमिका नहीं थी। पास खड़ा डंडा भी समय समय पर इस चक्के को गति देने आता था। इस दिए जाने वाले रूप में कुम्हार की शिक्षा थी। जो उसके पुरखों से उसे मिली थी। हर शब्द और हर क्रिया उन्होंने बताई नहीं होगी उसे ? कोई साँचा भी नहीं होता इस सीख का। आंख खुलते ही उसने आसपास से ये शिक्षा लेनी शुरू कर दी होगी। जब नज़रें इसे तकती होंगी तो कान पड़ी आवाज़ भी बहुत कुछ सिखाने में जुटी रही होगी। वर्ना लोग कहने लगेंगे कि शिक्षा का ही स्वाहा हो गया, वही स्वाहा जो होता ही नहीं, हो ही नहीं सकता। सारी शिक्षा न तो दी जा सकती है और न ली जा सकती है। शिक्षा के बाद उसका तजुर्बा भी तो शामिल होता गया होगा इस कारीगरी में।
पुरखे अपनी कला वंश के हवाले करते गए, तब भी कला स्वाहा नहीं हुई। हो भी नहीं सकती। तो क्या ये परिवर्तन था। तो क्या स्वाहा परिवर्तन है। कुछ न कुछ बदलाव तो हर रचना का हिस्सा बने ही होंगे कभी रचना की रचनात्मकता देने में तो कभी चलन की मांग पर। कभी किसी भूल सुधार में भी कुछ तो गढ़ा ही होगा कुम्हार ने और कभी कभी किसी सृजन से तृप्त न होकर उसने खुद ही अपनी रचना को नेस्तनाबूद भी किया होगा। जिसे स्वाहा करना कतई नहीं कहेंगे। उसी गीली मिटटी को चुपड़कर चाक पर साध लिया होगा कुछ और सृजन की खातिर।
यहां की मिटटी, वहां का पानी, किसी का चक्का और कहां से आने वाले विचार? उफ़ इतना घालमेल! फिर दहकती भट्टी में पकना। भट्टी… जहां सब स्वाहा वाला समां ज़रूर होता होगा, स्वाहा होना नहीं होता होगा। इस भट्टी में स्वाहा की तलाश की तो कच्चापन गुम नज़र आया। कच्ची मिटटी का तप जाना स्वाहा था। कुम्हार ने ज़र्रा ज़र्रा बिखरी मिटटी को आकार देकर पक्का पोढ़ा बना दिया। तो क्या पका पोढ़ा होना स्वाहा है? कत्तई नहीं। इस पक्के पोढ़े पर पड़ने वाली पानी की फुहार जो सोंधी सुगंध देती है उसे किस खाते में डालेंगे? क्या स्वाहा इतना सुगन्धित और आत्मा को तृप्त करने वाला हो सकता है कि मदहोशी की दुनिया तक ले आये। हां! पक्का पोढ़ा करना कभी भी स्वाहा नहीं होता क्योंकि बोझिल माहौल में हवन के पात्र की धधकती आग के सामने बैठा व्यक्ति मंत्रोच्चार और मुट्ठीभर झोंकी जाने वाली सामग्री को जब आग में झोंकते समय स्वाहा कहकर उसी निर्मल धुएं की रचना कैसे कर लेता है जो पहले से मौजूद बोझिल गुबार को भस्म कर देता है। न होकर भी होना और होते हुए भी नजर न आना। यही स्वाहा है। मंत्रों के साथ उसपर डाले जल की बौछार को अगर तुमने स्वाहा जाना तो इस विचार की तिलांजलि दे देना ही जरूरी है। मत भूलना कि ये विचार तुमसे गुजरने के बाद स्वाहा हो जायेगा। फिर इस स्वाहा के साथ क्यों सब निर्मल प्रतीत होता है? वही निर्मल, जो कोमल होता है। ये तो ज़रा भी पक्का पोढ़ा नहीं!
पक कर टूट गया मिट्टी का टुकड़ा। शायद गगरी का था, या शायद सुराही का। उसका तो रूप बदला है, नाम बदला है और काम बदला है। सौ बार टूट कर भी वह स्वाहा नहीं हो सकेगा। लाखों करोड़ों कण, लाखों करोड़ों रचना का हिस्सा बन जायेंगे। कोई तो गगनचुंबी इमारत की नीव में होगा। और कुम्हार के हाथों गूंथते समय उससे सटा कण किसी दूसरे नगर की गगनचुंबी इमारत के शीर्ष पर हो सकता है। कोई तो ऐसा कण भी होगा जो सागर के तल में गोते लगाकर असंख्य कणों के साथ न सिर्फ अथाह पानी के वजन में बिना दबे कुचले एक चट्टान बन गया होगा बल्कि अपनी पीठ पर किसी ऐसे सीप को पनाह दे रहा होगा जिसके भीतर अनछुआ मोती होगा। ये मोती भी तो किसी स्वाहा के बहाने किस किस रूप को धार कर सीप की आगोश में छुपा बैठा है।
क्या मालूम जिसे हमने अनछुआ मोती माना है, उसके सृजन में उसे सानते समय किसी जलपरी के दुख का आंसू भी शरीक हो गया हो? तो क्या जलमग्न संसार में भी स्वाहा संभव है ? यहाँ तो आग नहीं, मन्त्र भी नहीं, कुम्हार और उसका चाक भी नहीं। जिस जलमग्न सीप में इस मोती ने पनाह ली है उसके बनने में उस पत्थर का अंश भी तो हो सकता है जिसकी रगड़ ने इंसान को पहली बार आग जलाने का राज फाश करने में मदद की हो? तो आग सागर के अंदर है? हां, हां। बिलकुल होगी। ज्वालामुखी से बड़ा स्वाहा कहां होगा इस धरती पर। उस आग से तपकर निकला लावा क्यों नहीं सागर की तलछटी में आ सकता? तो क्या पानी में मौजूद इस सींप में उस लावे का ज़र्रा भी है? जलपरी के दुख के स्वाहा का आंसू और ज्वालमुखी के लावा से निकले कणों के अलावा भी बहुत कुछ घुल मिल गया होगा इस सीप के सृजन में। इस अनछुए मोती में असंख्य स्वाहा हैं। इसका सफर अभी पूरा नहीं हुआ है। शायद ऐसा लगने लगे कि विचार स्वाहा हो जायेंगे ये सोचने में इस स्वाहा के सफर में कौन कहां से आया और कौन कहाँ तक जायेगा। लम्हों से सहस्राब्दियों का सफर।
और विचार स्वाहा हो ही नहीं सकते। उनका अपना संसार हैं। अच्छे विचार बुरे विचार। ये संसार इसी लिए सुन्दर है क्योंकि यहां अच्छा और बुरा है, दुख और सुख है। और सबसे बड़ी बात संसार ही स्वाहा है और स्वाहा ही संसार है।