आजकल जाड़े का मौसम है। धूप हमेशा ही तंग करने वाली लगती है, बस जाड़े में ही वह अच्छी लगती है- ख़ास तौर पर सुबह। लेकिन ग़रीबों और बूढ़ों के लिए यह मौसम कष्टकारी ही सिद्ध होता है। इन सब बातों को लेकर प्रस्तुत हैं कुछ दोहे–
तन-मन झंकृत कर रही, सुबह गुनगुनी धूप ।
पवन ठिठक कर देखता, उसका कांचन रूप ।।
रवि-किरणों को देखकर, खिसके तारक वृन्द ।
कमल-दलों से कंठ लग, बैठे हुए मिलिन्द ।।
कम्बल अपना आस्मां, और ज़मीं कालीन।
पूस-माघ छीने उन्हें, दिखा शीत-संगीन।।
सूर्य स्वयं दुबका पड़ा, घन का कम्बल ओढ़ ।
जैसे बिस्तर में पड़े, हम घुटनों को मोड़ ।।
सूरज बाबा खेलते, लुका-छिपी का खेल ।
बूढी अम्मा को हुई, हफ़्ते-भर की जेल ।।
दिन तो कट जाता मगर, काटे कटे न रात ।
खाँसी-बलगम की मिली, दादा को सौग़ात ।।
सरसों में माहू लगा, आलू में क्षय रोग ।
ठण्डे पड़ने हैं लगे, पाला खाते लोग ।।
साधनहीनों पर लगी, मौसम की भी घात।
गले लिपटकर श्वान के, हल्कू काटे रात।।
कौड़े पर बैठे हुए, करें बतकही लोग ।
बिधना ने जो लिख दिया, मेटे मिटे न सोग ।।
लिये रजाई बर्फ़ की, मन्दिर करें विचार ।
जाड़े-भर रहते कहाँ, बदरी और केदार ?
– राजेन्द्र वर्मा (लेखक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में पूर्व चीफ मैनेजर हैं)