एक राजा था। उसने अपने रहने के लिए एक विशाल महल तैयार करवाया। बड़ा सुन्दर महल था। जो भी देखता, उसकी प्रशंसा करता।
महल के साथ तालाब बनवाया, जिसमें रंग-बिरंगी मछलियां आनंद से दौड़ती, कमल के फूल खिलते। बाग-बगीचे लगवाये। उनमें पुष्पों की बहार देखते ही बनती थी। राजा उस सबसे बड़ा प्रसन्न होता।
लेकिन एक दिन राजा ने देखा कि महल की बगल से धुंआ उठकर आ रहा है। राजा ने नाक-भौं सिकोड़कर अपने चौकीदारों से पूछा, “यह धुंआ कहां से आ रहा है?’
चौकीदारों ने कहा, “सरकार, पड़ोस में एक बुढ़िया की झोपड़ी है। धुंआ उसी में से उठकर आ रहा है।”
राजा ने क्रुद्ध होकर कहा, “जाओ, बुढ़िया से कहो कि वह अपनी झोंपड़ी को यहां से हटा ले।”
चौकीदार बुढ़िया के पास गये और राजा की आज्ञा सुनाकर कहा, तुम अपनी
झोपड़ी को फौरन यहां से हटा लो।”
बुढ़िया ने राजा की आज्ञा सुनी। बोली, “मैं नहीं हटाऊंगी। जाओ, अपने राजा से कह दो।”
चौकीदारों ने बुढ़िया की बात राजा को कह सुनाई। राजा आग- बबूला हो गया। बोला, “बुढ़िया को मेरे सामने पेश करो।”
चौकीदार बुढ़िया को ले आये। राजा ने क्रुद्ध होकर पूछा, “बुढ़िया, तू अपनी झोंपड़ी क्यों नहीं हटाती? मेरी आज्ञा क्यों नहीं मानती?’ बुढ़िया ने बड़ी नम्रता से कहा, “महाराज, आपकी आज्ञा सिर-माथे पर है। पर मेरी एक बात का जवाब दे दीजिये।”
राजा ने उत्सुकता से पूछा, “क्या ?”
बुढ़िया बोली, “राजन, मैं आपके इतने बड़े महल को, उसके बाग-बगीचों को देख सकती हूं, पर आप मेरी इस छोटी-सी, टूटीफूटी झोपड़ी को नहीं देख सकते। आप समर्थ हैं। चाहें तो उसे तुड़वाकर फिंकवा सकते हैं। पर क्या वह न्याय होगा?”
लज्जा से राजा का सिर झुक गया। बुलाया था बुढ़िया को गुस्से से, लेकिन विदा किया प्रेम से।