जी के चक्रवर्ती
हमारे देश में न्याय और न्यायालयों की स्थिति इतनी लचर हो गई है कि धीरे -धीरे लोगों का न्याय पर से ही विश्वास उठता चला जा रहा है। जिससे देश का एक साधारण व्यक्ति यह बात पहले ही कह देता है कि अरे न्यायलय जाने से क्या फायदा न्याय इतने दिनो के बाद आएगा की इस मुकद्दमे का विषय वस्तु सभी कुछ भूल जायेंगे। आखिरकार न्याय पालिका में ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए जाते हैं? कि जिससे अदालतों में लंबित चल रहे मुकदमों का निस्तारण जल्दी से जल्दी एक निश्चित समय सीमा में हो जाये।
हम जब अपनें देश में लम्बित चल रहे मुकद्दमों की बात करें तो 02 मार्च वर्ष 2022 तक देश की उच्च न्यायालय में 58 लाख 94 हजार 60 केस लम्बित चल रहे हैं। लोकसभा में एक लिखित जवाब में देश के कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि 4,10,47,976 मुकदमे देश की जिला एवम अन्य अधीनस्थ अदालतों में लंबित चल रहे हैं। यदि हम इसके कारणों की बात करें तो इसमें कारण बहुत से हैं लेकिन उन कारणों का निवारण प्राथमिकता के आधार पर क्यों नहीं किया जाता है? यह बात समझ से परे है। क्योंकि इन कारणों की वजह से कुछ मुकद्दमों का निपटारा होते- होते दशकों तक का समय गुजर जाता हैं।
भारतीय न्यायपालिका में साल दर साल मुकदमों के बढ़ते बोझ तले दबती चली जा रही है। आज औसतन प्रत्येक जज के पास लम्बित पड़े एक हजार से अधिक मुकदमों को निपटाने की जिम्मेदारी को निभाने की जल्दबाजी में जजों द्वारा की जाने वाली सुनवाई का समय मिनटों तक ही सीमित हो कर रह गया है जिससे लंबित मुकदमों के बोझ तले दबी अदालतों में सुनवाई का समय कम होना न्याय के मूल मकसद पर कुठाराघात जैसा है।
वैसे स्वयं न्यायपालिका का यह मानना है कि न्याय में देरी होना भी एक प्रकार का अन्याय है। इस देरी के कारण अब जनता का धैर्य धीरे -धीरे जवाब देने लगा है। अगर हम देश के उच्च अदालतों की बात करें तो यहां इंसाफ के तौर-तरीकों पर हाल ही में किए गए एक अध्ययन से यह पता चलता है कि प्रत्येक
जज मुकदमे की सुनवाई में पांच मिनट तक का समय देतें है। कुछ कोर्ट में तो यह अवधि ढाई मिनटो तक सिमट कर रह गई है। जबकि प्रत्येक मुकदमे में सुनवाई की औसत अधिकतम समयसीमा 15 मिनट है ऐसे में यह अनुमान लगाना कठिन नही है कि जटिलतम कानूनी मामलों की न्यायिक प्रक्रियाओं के मध्य प्रत्येक तारीख पर 2 से 15 मिनटों की सुनवाई न्याय की फैसले को कितना लम्बा खींच देती है कि कभी कभी तो वादी की मृत्यु तक हो जाती है।
वैसे यहां आपको बता दें कि न्यायालयों में मुकदमों की बढ़ती संख्या और न्याय पाने के लिए लम्बे समय तक का इंतेजार करना वादी और स्वयं न्यायपालिका के लिए एक सरदर्द बन गया है। हालांकि जानकारों का कहना है कि यह सरदर्द इसलिए है कि हमारे देश में 73 हजार लोगों पर एक जज नियुक्त है जबकि अमेरिका जैसे देश से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें तो अमेरिका में ये संख्या प्रति 10 लाख लोगो पर 107 हैं यूके में 51, कनाडा और आस्ट्रेलिया में क्रमश: 75 और 42 है। इस तरह उच्च न्यायपालिका के प्रत्येक जज पर औसतन 1300 मुकदमे लंबित हैं। इसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि न्याय की आस में अदालतों में न्याय की गुहार लगानों वालों की संख्या के अनुपात में जजों की संख्या बहुत कम है।
दिल्ली के हाई कोर्ट के एक पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह के अनुसार विधि आयोग की अनेकों सिफारिशों में सरकार से जजों की संख्या बढ़ाने को कहा जाता रहा है। वहीं निचली अदालतों की बात छोड़िए देश के सर्वोच्च अदालत और सभी उच्च अदालतों में अभी तक जजों के खाली पड़े पद को नहीं भरे गए हैं। नए पदों के सृजित करने की बात तो दूर रखें।
हां यहां यह बात अलग है कि किसी भी कोर्ट का जज जब तक कुछ मामलों का निपटारा कर पाते हैं तब तक 50 और अन्य मुकद्दमे सामने आ जाते हैं, चूंकि यह सिलसिला एक लम्बे वक्त तक समाप्त होते हुए नहीं दिखाई दे रहा है इसलिए लंबित मुकदमों की संख्या में बढ़ोत्तरी होना स्वाभाविक सी बात है। आज देश में लगभग पांच करोड़ से भी अधिक मामले देश के विभिन्न अदालतों में लंबित चल रहे हैं।
- (यह लेखक के अपने निजी विचार हैं। लेखक फ्रीलान्स जर्नलिस्ट हैं।)