राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन सिंह की रिपोर्ट
समय से बहुत पहले यूपी में चुनावी शंखनाद बज चुका है। इसे सत्ताधारी दल के मन में हार का डर कहें या उसकी चुनावी रणनीति का हिस्सा लेकिन यह नरेन्द्र मोदी के काल से ही देखा जा रहा है कि विपक्ष नहीं, पहले सत्ताधारी दल ही चुनावी मोड में आया है। यहां विपक्ष चार माह पूर्व सक्रिय हुआ लेकिन भाजपा कोरोना काल से ही सक्रिय हो गयी। यही नहीं अभी विपक्ष चुनावी रणनीति में आगे बढ़ता नहीं दिख रहा। भाजपा की तमाम गलतियों के बावजूद विपक्ष उसे मुद्दा नहीं बना पा रहा है। अभी लखीमपुर में किसानों की हत्या के मामले में भी मुख्य विपक्ष सपा और बसपा पिछड़ गयी और यूपी की राजनीति में अंतिम सांस गिन रही कांग्रेस आगे निकल गयी। जहां समय से अखिलेश यादव को पहुंचना चाहिए था, वहां प्रियंका गांधी पहले पहुंची।
यही सब तमाम गलतियां हैं, जिससे भाजपा विपक्ष पर भारी पड़ जा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मुलायम सिंह की वर्तमान में कमी खल रही है। छह माह पूर्व ही जरूरत थी, सपा को नोयडा से बलिया तक की यात्रा की, जिसके माध्यम से भाजपा की कमियों को उजागर किया जा सकता था लेकिन यहां तो कमियां उजागर हो ही नहीं पायी।
यदि पीछे के इतिहास पर नजर डालें तो 2002 के विधान सभा चुनाव के बाद से हाई उत्तर प्रदेश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के लिए पराभव का दौर प्रारम्भ हो गया। अपने मजबूत मूल वोट बैंक के सहारे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपना सिक्का जमा लिया। इन दलों की रणनीति के आगे भारतीय जनता पार्टी असहाय हो गयी। 2007 और 2012 के विधान सभा चुनाव और 2009 का लोकसभा चुनाव इनही परिस्थितियों में हुआ और सत्ता से भारतीय जनता पार्टी बहुत दूर रही।
ऐसी विषम परिस्थिति में 2014 के लोकसभा चुनाव में अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के मतदाता समूह को इस प्रकार से दोबारा खड़ा करना था कि पार्टी कल्याण सिंह युग के उस 36% मत के बराबर या उससे ऊपर पहुँच सके। वहीं लोक सभा के चुनावों में 50 से 58 तक सीटें पाती रही और इसी के सहारे केंद्रीय सत्ता के प्रबल दावेदार के रूप में भी 2004 तक बनी रही l अमित शाह ने यह महसूस किया कि कुल मतदाता समूह में 42 प्रतिशत मतदाता ( यादव , दलित और मुसलमान) भाजपा के मूल वोट बैंक नहीं हैं। अपनी सारी रणनीति को बाक़ी बचे 58 प्रतिशत पर केंद्रित करना पड़ेगा। इसी के सहारे 40 प्रतिशत के आस पास मत प्राप्त करना पड़ेगा।
इसी के सहारे उन्होंने अपनी रणनीति पर काम करना शुरू किया। 2002 से पूर्व सवर्ण मतदाताओं के साथ साथ पिछड़ी जतियों में कुर्मी, लोध, गडेरिया, कश्यप,नाई, काछी, मल्लाह आदि जातियाँ और साथ में खटिक जैसी अनुसूचित जाति भी भाजपा की मूल वोटर थीं l अपने मूल वोट बैंक को सहजते हुए बिना किसी बड़े फेरबदल के अमित शाह की रणनीति से पार्टी ने 42.5 प्रतिशत व कुल 71 सीटों के साथ वे इतिहास रच दिया।
गुजरात से यूपी की राजनीति में भी अब अपना लोहा मनवा चुके अमित शाह ने अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने 2017 विधान सभा चुनाव की रणनीति बनाना प्रारम्भ कर दिया। यहाँ सबसे बड़ी समस्या अखिलेश यादव के द्वारा किए जा रहे कार्यों की समालोचना करने के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के संगठन के ढाँचे में बदलाव करना ज़रूरी था। उनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई भाजपा का सवर्णो की पार्टी माना जाना रहा। इस जनभावना को तोड़ने के लिए किसी पिछड़े समाज को चेहरा बनाना जरूरी था। इसके लिए केशव प्रशाद मौर्य का चुनाव किया गया। यद्यपि लक्ष्मीकान्त बाजपेई सफलतम अध्यक्ष रहे किंतु इस रणनीति में उनकी भूमिका नगण्य हो गयी।
इसी बीच अखिलेश यादव के घरेलू कलह ने भी भाजपा के लिए शुभ संकेत दे दिया। समाजवादी पार्टी पर क़ब्ज़ा करने के चक्कर में अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव ने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया। इससे माहौल ख़राब हो गया और पार्टी चुनाव को अपने विकास के मुद्दे पर ले जाने की कोशिश करने के बावजूद उसने सफल नहीं हो सकीl रही सही कसर कांग्रेस के साथ किए गए ग़लत गठबंधन ने पूरा कर दिया। वहीं राहुल गांधी और प्रियंका गाँधी की एक अल्पकालिक नेता की छवि ने भारी नुक़सान पहुँचाया।
वहीं बहुजन समाज पार्टी अपनी पुरानी रणनीति पर क़ायम रही लेकिन समय बदल चुका था और उनके आधार वोट बैंक के अलावा कोई अन्य वोटर हाथी की सवारी को तैयार नहीं था। इन परिस्थितियों में हुए विधान सभा चुनाव ने उत्तर प्रदेश विधान सभा का पूरा परिदृश्य बदल कर रख दिया। पिछले चुनाव में 15 प्रतिशत मत के साथ 47 सीटें जीतने वाली भाजपा 24.67 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 39.67 प्रतिशत पर पहुँच गयी। 312 सीटें जीत कर इतिहास रच दिया।
वहीं सपा कांग्रेस के वोट क्रमशः 21.82 प्रतिशत और 6.25 प्रतिशत रहे और इन दोनों ने मिलकर अपने वोट बढ़ाने के बजाय क़रीब 13 प्रतिशत मत काम पाए। वही 198 सीटों के नुक़सान के साथ 47 सपा और सात कांग्रेस के साथ कुल 54 सीटें ही पा सकेl बसपा को वोट के मामले में कम 3.68 प्रतिशत का नुक़सान हुआ लेकिन सीटों के मामले में बड़ा नुक़सान हुआ और सीटें 80 से 19 पर आ गयींl
अब बारी थी भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री के चुनाव की भाजपा ने अपना कोई मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित नहीं किया था। यही पर मोदी शाह की जोड़ी ने अपना मास्टर स्ट्रोक खेला और योगी आदित्यनाथ का चुनाव करके सारे क़यासों पर पानी फेर दिया l यहाँ से उत्तर प्रदेश में योगी के शासन का प्रारम्भ हुआ और वर्षों से चले आ रहे तरीक़ों की बदलने के संकल्प के साथ योगी ने अपना कार्य प्रारम्भ किया l इस क्रम में योगी ने जहाँ प्रशासन में अनावस्यक हस्तक्षेप से बचने की रणनीति बनाई। वहीं विधायकों, मंत्रियों और पार्टी के अन्य नेताओं को ट्रांसफर पोस्टिंग से बचने के लिए प्रेरित किया। एक नयी प्रकार की कार्य शैली विकसित किया। इस पर आज तक उत्तर प्रदेश चल रहा है। यद्यपि इस नीति की वजह से जन प्रतिनिधियों का दबाव प्रशासन पर कम हुआ है और प्रशासनिक निरंकुशता बढ़ी है लेकिन इससे आम जनता का सरकार की नीतियों पर विश्वास बढ़ा है l मुख्यमंत्री योगी ने इसके साथ साथ विकास की योजनाओं का आगे बढ़ाना शुरू किया। वहीं संगठित आपराधिक गिरोहों पर प्रभावी तरीक़े से प्रहार करके एवं नया माहौल बनाने का प्रयास किया।
इसी बीच 2019 का लोकसभा चुनाव आ गया और यह चुनाव केंद्र की मोदी सरकार के साथ साथ योगी के दो साल के कार्यकाल पर वे जनमत संग्रह था। उत्तर प्रदेश की राजनीति के दो सबसे बड़े विरोधियों सपा और बसपा ने आपस में गठबन्धन करके भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती पेस कर दी। तात्कालिक रूप से राजनीतिक विष्लेशकों का यह मानना था कि इस गठबन्धन के आगे भाजपा कहीं टिक नहीं पाएगी। उसका उत्तर प्रदेश से सफ़ाया हो जाएगा। वहीं भाजपा नेतृत्व इस रणनीति पर काम कर रहा था कि उसे 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करके अपनी पुरानी स्थिति को क़ायम रखना हैl एक युद्धस्तर का चुनावी प्रचार और मोदी से साथ -साथ योगी सरकार के कार्यों ने इस मिथक को टॉड दिया कि यदि सपा और बसपा मिल गए तो उत्तर प्रदेश से भाजपा का सफ़ाया हो जाएगा। अपने लक्ष्य के बहुत क़रीब जाकर 49..98 प्रतिशत मत के साथ भारतीय जनता पार्टी जहां 61 सीटें जीतने में सफल रही। वही सपा और बसपा को 15 सीटों पर समेट दिया और मोदी के साथ साथ योगी की नीतियों पर जनता ने मुहर लगा दी।
अब उत्तर प्रदेश 2022 के।विधान सभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है और इस बार चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं l पंजाब से चलकर किसान आंदोलन की कमान अब उत्तर प्रदेश आ पहुँची है और ऐसी सामान्य धारणा बन चुकी है कि राकेश टिकैत के नेतृत्व में एक बड़ा वर्ग भाजपा के विरोध में खड़ा है। वहीं ब्रह्मणों की योगी सरकार के विरुद्ध नाराज़गी भी सा बहुत बड़ा मुद्दा है। साथ साथ पुलिस की दमनकारी नीतियों के प्रति आम जन मानस के मन में व्याप्त भय भी एवं बड़े मुद्दे के रूप में सामने आ रहा है l
विगत दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दौरे पर था और विशेष कर मेरठ और मुज़फ्फरनगर के जाट बहुल क्षेत्रों में जनता की नब्ज को समझने का प्रयास किया। यद्यपि की किसान बिल के विरुद्ध जाट लैंड में नाराज़गी है, किंतु इसका कोई बहुत बड़ा असर चुनाव पर पड़ेगा, इसकी सम्भावना कम है। इन इलाक़ों में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के बाद उनके पुत्रों की राजनीतिक विश्वसनीयता कम हुई है और जाटों का वह वर्ग यह महसूस करता है कि आंदोलनों की आड़ में यह लोग कुछ अन्य कार्य भी करते हैं l विभिन्न किसान रैलियों के माध्यम से एक़ हिंदू मुस्लिम एकता की बात की जा रही है किंतु मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद जो सामाजिक ताना बाना बदला उसका असर आज भी विद्यमान हैल
जहाँ तक ब्राह्ममणों की नाराज़गी का सवाल है विभिन्न प्रकार के सम्मेलनों के माध्यम से और अजय मिश्रा और जितिन प्रसाद को मंत्री बनाकर उसे दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात कि ब्राह्मण भाजपा के मूल वोटर रहे हैं और नाराज़गी के बावजूद ये भजपा के साथ ही रहेंगे ऐसा लगता है ल
अब वे बड़े मुद्दे के रूप में मुख्यमंत्री के साथ-साथ पुलिस का जो दमनकारी चेहरा सामने आ रहा है। उसके दो पहलू हैं, जहाँ पुलिस के ऊपर एक दो घटनाओं में आम जनता के उत्पीड़न का आरोप लगा है, जो कि सरकार की छवि को धूमिल कर रहा है। वहीं योगी के नेतृत्व में बड़े माफिया गिरोहों के विरुद्ध की गयी प्रभावकारी कार्रवाई से आम जन मानस में बहुत अच्छा प्रभाव गया है। मेरा मानना है कि आने वाले चुनाव में यह योगी के लिए एक बहुत अच्छा माहौल बनाने में मदद करेगी।
अंत में यह कहा जा सकता है कि आज की परिस्थितियों के हिसाब से 2022 में भाजपा को दोबारा सरकार बनाने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी और इस बार इसका बड़ा श्रेय योगी को जाएगा l