देश में फोटो जर्नलिस्ट के पास जीविका के अवसर कम होते जा रहे हैं। उनको फोटो खींचने के मौके ही नहीं मिल रहे हैं। राजनीतिक दल खबरों की विज्ञप्ति के साथ ही अपनी पसंद के फोटो और वीडियो उपलब्ध करा देते हैं। मीडिया घरानों ने फोटोग्राफरों की छंटनी शुरू कर दी है। अनेक अखबारों ने रिपोर्टरों को ही स्मार्टफोन से फोटो खींचने के लिए कह दिया है। स्मार्टफोन से ही फोटो शूट कर अखबारों को पिक्चर, ऑनलाइन वीडियो और लाइव उपलब्ध कराये जा रहे हैं। एजेंसियों की फोटो उन्हें और सुविधा दे देती हैं।
अधिकतर प्रमुख मैगजीन या तो बंद हो गई हैं,या उनका प्रसार कम हो गया है। वे भी एजेंसी की ही फोटो पर निर्भर हैं। ऐसे में फोटोजर्नलिस्ट के सामने अपनी जीविका के साथ ही अपनी पहचान बचाने का संकट आ गया है। इनसे कैसे निपटा जाए और आगे क्या किया जाना चाहिए, इसी पर विचार करने के लिए 19 अगस्त को वर्ड फोटोग्राफी डे पर वर्किंग न्यूज कैमरामैन एसोसिएशन और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया था।
वक्ताओं में वरिष्ठ फोटोग्राफर और पत्रकार उपस्थित थे। एसोसिएशन के अध्यक्ष एसएन सिन्हा ने संगोष्ठी के विषय पर विस्तार से चर्चा की और समस्या का समाधन ढूढने की आवश्यकता बताई तो चर्चा की शुरूआत करते हुए देश के वरिष्ठतम फोटोग्राफर रघु राय ने कहा कि जब ऐसी समस्या हो तो हमें अपने कैमरों की दिशा बदल देनी चाहिए। आप सरकार और राजनतिक दलों का मुंह क्यों देख रहे हैं। इतना बड़ा देश है जो विपुल प्राकृतिक संपदा से भरा हुआ है। इन्हें अपने कैमरों में कैद कीजिए और दुनिया को दिखाइए। आपको चिंता नहीं करनी चाहिए क्यों कि आपके सामने असीम संभावनाएं हैं। यह ठीक है कि तकनीक के विकास ने हमें सुविधाएं दी हैं तो चुनौतियां भी पैदा की हैं। हमें इसी में से रास्ता निकालना होगा।
राजदीप सरदेसाई और शेखर गुप्ता ने भी फोटो जर्नलिस्टों के सामने आने वाली चुनौतियों की चर्चा की और बताया कि फोटोग्राफरों का काम सबसे जोखिम भरा होता है और कभी कभी वे जान की बाजी लगा कर फोटो खींचते हैं। वे सिर्फ फोटो नहीं खींचते बल्कि इतिहास को रिकार्ड कर रहे होते हैं। ऐसे इतिहास को जिसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।
प्रिंट में फोटो की कमी और अच्छी फोटो न छपने पर रघुराय की टिप्पणी की थी कि – एडीटर्स आर विजुअली इल्लिटरेट- माने संपादकों को फोटो की समझ नहीं होती। जब मेरे बोलने का मौका आया तो मैने कहा कि मै रघु राय जी की बात से सहमत तो हूं लेकिन पूरी तरह नहीं। सभी संपादकों के साथ ऐसा नहीं है। आखिर अच्छी फोटो छापने वाले भी तो संपादक ही होते हैं। जब फोटो अच्छी होती है तो वह अपनी जगह तो बना ही लेती है। मैने फोटो के चयन की प्रक्रिया बताते हुए कहा कि फोटोग्राफर अलग दिखने वाली फोटो खींचें तो उसे हर हाल में स्थान मिलेगा। कई उदाहरण देकर भी इसे स्पष्ट किया।
संगोष्ठी में प्रख्यात वन्य जीवन फोटोग्राफर राजेश बेदी ने भी अपने अनुभव शेयर किए और बताया कि कैसे वह इस क्षेत्र में आगे आए। पल्लव बागला ने विज्ञान फोटोजर्नलिस्ट के रूप में अपने किए काम को बताया।तन्वी मिश्रा ने अपनी मैगजीन की स्टोरी और फोटो के बारे में बताया। सौम्या खंडेलवाल ने भी अपनी फोटो के बारे में जानकारी दी। प्रेस क्लब के अध्यक्ष उमाकांत लखेड़ा ने सबका स्वागत किया और पीटीआइ के फोटो एडीटर गुरींदर ओसान ने आभार व्यक्त किया। अंदर जब फोटो जर्नलिस्टों की समस्या पर ये चर्चाएं हो रहीं थीं तो बाहर कई फोटोग्राफर पीआइबी में अपने नवीनीकरण को लेकर परेशान थे।