वीर विनोद छाबड़ा
राम और श्याम (1967) दिलीप कुमार की ‘कमबैक’ फिल्म मानी जाती है. परदे पर इसने ज़बरदस्त धूम मचाई थी. उस वर्ष मनोज कुमार की ‘उपकार’ के बाद ये सबसे ज़्यादा कमाऊ फिल्म रही. इसकी कहानी शेक्सपीयर की ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ पर आधारित है. दो जुड़वाँ भाई बचपन में बिछुड़ जाते हैं. एक गरीब के घर पलता और दूसरा अमीर के घर.
दोनों अलग अलग परिस्थतियों में पलते और बड़े होते हैं. एक सीधा सादा और दूसरा चतुर सुजान. एक हीरो और दो किरदार. संयोग से अदला-बदली हो जाती है. अमीर गरीब के घर और गरीब अमीर के घर. कई ड्रामे होते हैं. एक विलेन भी है जो प्रॉपर्टी हड़पना चाहता है. लेकिन अंत में सब भला ही होता है. बिछुड़े हुए मिल जाते हैं और ख़राब लोग जेल की हवा खाते हैं.
लेकिन जैसा कि हर क़ामयाब फिल्म के साथ होता है परदे के पीछे ‘राम और श्याम’ की भी कई दिलचस्प कहानियां हैं. जब ये फ्लोर पर गयी तो इसकी हीरोइन वैजयंती माला थी. बॉलीवुड चहक उठा. एक बार फिर दिलीप-वैजयंती को रोमांटिक भूमिका में देखने का रोमांच जाग उठा. इससे पहले वो देवदास, पैगाम, मधुमती, नया दौर, गंगा जमुना और लीडर में काम कर चुके थे और दर्शकों ने हर बार उनकी जोड़ी को सर आँखों पर बैठाया. लेकिन एक सुबह अचानक शॉकिंग न्यूज़ आयी कि वैजयंती माला की जगह वहीदा रहमान ने ले ली ही. हालांकि निर्माता की तरफ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया कि अचानक ऐसा क्यों हुआ. मगर बॉलीवुड की गॉसिप दुनिया को चटखारे लेने का नया मसाला मिल गया.
बताया गया कि एक सीन में वैजयंती की एंट्री को लेकर दिलीप ने ऐतराज़ किया जो वैजयंती को नागवार गुज़रा और वो एग्ज़िट कर गयीं. चर्चा ये भी हुई कि वैजयंती की साड़ियों के रंग कैसे हों, इसमें दिलीप ने कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी ले ली. इस पर वैजयंती भड़क गयीं. और फिल्म छोड़ दी. ये तो थी गॉसिप की दुनिया की अटकलें. लेकिन अंदाज़, ब्रह्मचारी आदि कई फिल्मों के संवाद लेखक और मेरे मित्र आनंद रोमानी (अब स्वर्गीय) ने मुझे बताया था कि गलती वैजयंतीमाला की ही थी. उस दिन वो सेट पर बिना पूर्व सूचना दिए घंटों विलम्ब से आयीं. इस बीच दिलीप कुमार, प्राण, निरूपाराय जैसे व्यस्त अदाकारों सहित तमाम यूनिट इंतज़ार करते-करते उकता गयी. उस पर तुर्रा ये कि जब वो आयीं तो बिना सॉरी बोले सीधे मेकअप रूम में चली गयीं.
निर्माता बी.नागी रेड्डी को उनका ये व्यवहार अच्छा नहीं लगा. फिर भी वो गुस्सा पी गए. मगर उस वक़्त वो अपना गुस्सा कंट्रोल नहीं कर पाए जब निर्देशक चाणक्य ने वैजयंती को ख़ास रंग की साड़ी पहनने को कहा और वैजयंती ने साफ़ मना कर दिया. नागी रेड्डी ने वैजयंती को ऑफिस में बुलाया और कहा, आप अपना हिसाब करिये और अभी से आप फिल्म से अलग की जाती हैं. इस पर वैजयंती ने सॉरी बोला. लेकिन नागी रेड्डी उसूल वाले निर्माता थे, अनुशासनहीनता बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते थे. उन्हें म्युज़िक डायरेक्टर नौशाद और अन्य सीनियर कलाकारों ने मनाने की कोशिश की, लेकिन वो नहीं माने. दक्षिण भारत के निर्माता-निर्देशक अनुशासन के मामले में उसूल वाले रहे हैं चाहे सामने कोई कितना भी बड़ा तुर्रमखां क्यों न खड़ा हो. बहरहाल,
नागी रेड्डी ने वहीदा रहमान को फोन मिलाया और अगली सुबह वो मद्रास पहुचं गयीं. इस बखेड़े के लिए वैजयंतीमाला कैंप ने दिलीप को ज़िम्मेदार माना. उन दिनों दिलीप-वैजयंती हरनाम सिंह रवैल की ‘संघर्ष’ में भी एक साथ थे. वैजयंती वहां बीमारी के कारण बाहर हो गयीं साधना के स्थान पर थीं. ऐसा माना गया कि अब वैजयंती को वहां से आउट समझो. मगर इस दृष्टि से कि फिल्म आधी से ज़्यादा शूट हो चुकी थी, रवैल ने वैजयंती का मना लिया. लेकिन दिलीप-वैजयंती के रिश्ते तल्ख़ रहे. सेट पर एक-दूसरे से बात नहीं करते थे. जब इसका गाना ‘मेरे पास आओ तो नज़र तो मिलाओ…’ शूट हो रहा था तो उनके पुराने गर्म रिश्तों की झलक साफ़ साफ़ देखी गयी.
‘राम और श्याम’ से जुड़ी एक अन्य दिलचस्प बात भी पता चली. गांव की गोरी शांता के जिस किरदार को मुमताज़ ने अदा किया था उसे पहले माला सिन्हा करने वाली थीं. लेकिन बात नहीं बनी. क्यों? पता नहीं चला. लेकिन, मुमताज़ की तो लॉटरी निकल आयी. हेडिंग्स बनीं – दारा सिंह की हीरोइन दिलीप कुमार के सामने बड़ी भूमिका में.
‘राम और श्याम’ में विलेन के किरदार में दिलीप कुमार के प्रगाढ़ मित्र प्राण थे. जिन्होंने इस फिल्म को देखा है उन्हें याद होगा जीजा बने विलेन गजेंद्र सिंह के किरदार को प्राण साहब ने बड़ी शिद्दत के साथ बेहद खूंखार अंदाज़ में जीया था ताकि पब्लिक उनसे बेहिसाब घृणा करे. और यही हुआ भी. प्राण साहब पिटे और खूब तालियां बजीं जबकि पहले की फिल्मों में प्राण साहब जब हीरो को पीटते थे तो तालियां बजती थीं.
जुड़वाँ भाईयों की फ़िल्में पहले भी बनती रही हैं. लेकिन ‘राम और श्याम’ की कामयाबी ने इंडस्ट्री को एक हिट फार्मूला दिया. कुछ साल बाद रमेश सिप्पी ने जुड़वा बहनों पर ‘सीता और गीता’ (1972) बनाई. बल्कि राम और श्याम का स्त्रीकरण कर दिया. हेमा मालिनी फीमेल सुपर स्टार बन गयीं.
ये स्त्रीकरण ‘चालबाज़’ (1989) में भी कामयाब रहा. इसने श्रीदेवी को सातवें आसमान पर बैठा दिया. साल भर बाद ‘राम और श्याम’ फिर वापस आ गए लेकिन इस बार ‘किशन कन्हैया’ (अनिल कपूर) बन कर. इस फॉर्मूले को ‘गोपी कृष्ण’ (1994) में फिर आजमाया गया और कामयाबी भी मिली. सुनील शेट्टी की किस्मत चमक गयी. डबल रोल की फिल्मों में हीरो के लिए एक्टिंग का स्कोप बहुत ज़्यादा होता है, पहले सीन से अंतिम सीन के छाया रहता है.
लेकिन बाद के सालों में इस हिट फॉर्मूले को नहीं दोहराया गया. पिछली जनरेशन बहुत बूढ़ी हो गई या कहिये विदा हो गयी. रही सही कसर ग्लोब्लाइज़ेशन ने पूरी कर दी. इस बदलाव ने नई सोच के दर्शक दिए, फिल्मों के ट्रेंड और कंटेंट्स भी बदल गए।