आपके विचार : सुयश मिश्रा
व्यक्तिगत-स्वतंत्रता और सामाजिक-अनुशासन का नियंत्रण सतही स्तर पर दो परस्पर विरोधी विषय लगते हैं किंतु जीवन में इन दोनों का ही बराबर महत्व है और व्यक्ति तथा समाज की सुख-शांति के लिए दोनों में समन्वय की आवश्यकता सदा अनुभव की जाती रही है। समाज के लिए व्यक्ति का होना अनिवार्य है। व्यक्ति ही नहीं होगा तो समाज बनेगा कैसे ? और व्यक्ति के लिए समाज का अस्तित्व में रहना अपरिहार्य है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और उसकी निजी सुख-शांति समाज के मध्य ही संभव है। बिंदु के बिना सिंधु का होना और सिंधु के अभाव में बिंदु का अस्तित्व सुरक्षित रहना असंभव है। अफगानिस्तान में तालिबान सामाजिक अनुशासन के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण करता हुआ बिंदु और सिंधु में संघर्ष उत्पन्न कर वहाँ का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर रहा है जिसका दुष्प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ना स्वाभाविक है। अतः तालिबानी शक्तियों के कृत्यों का औचित्य विचारणीय है।
लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देती हुई सामाजिक ताना-बाना बुनती है जबकि किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा शस्त्र-शक्ति के बल पर सत्ता पर अधिकार कर अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओं और रूढ़ियों के माध्यम से समाज पर नियंत्रण करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण करना है। व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहता है इसीलिए ऐसी अधिरोपित व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करता है। अफगानिस्तान में तालिबान और लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच की टकराहट व्यक्ति और समाज जनतंत्र और तानाशाही के मध्य जारी ऐसा ही संघर्ष है। इस संघर्ष में इस समय कट्टरता, उन्माद और नकारात्मक सोच का बढ़त मिली है जो उदारता, सामूहिकता और सह अस्तित्व की पुष्टि के लिए शुभ नहीं कही जा सकती।
शासन की कोई भी प्रणाली कभी भी पूर्णतया निर्दोष नहीं होती। वह मनुष्य अथवा समान विचार वाले कुछ मनुष्यों द्वारा स्थापित की जाती है। मनुष्य पूर्ण होता नहीं इसलिए उसके द्वारा बनाई गई व्यवस्था में भी अपूर्णता रह जाती है। तथापि मनुष्य स्थापित व्यवस्था में परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन का प्रयत्न करता है। यह प्रयत्न प्रायः रचनात्मक और सकारात्मक सोच के साथ किए जाते हैं तो इनके परिणाम भी अधिकांशतः शुभ होते हैं किंतु जब इन परिवर्तनकारी प्रयत्नों की दिशा पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों, वैयक्तिक अथवा संकीर्ण सामूहिक स्वार्थों से प्रेरित होती है तब इनके परिणाम विनाशकारी होते हैं। दुर्भाग्य से अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा शस्त्रबल के सहारे लाया गया वर्तमान परिवर्तन भी ऐसा ही प्रयत्न है क्योंकि उसका लक्ष्य वर्तमान समाज पर मध्यकालीन जीवन को आरोपित करना और समस्त विश्व-समुदाय को उसकी बहुरंगी छवियों से दूर कर एक रंग में रंगना है, विश्व का इस्लामीकरण करना है।
नदी के प्रवाह की भाँति मनुष्य का जीवन भी गतिशील है, परिवर्तनशील है। समाज के पटल पर समय – समय पर प्रतिभाशाली विचारक जन्म लेते रहते हैं और अपने चिंतन से सामाजिक जीवन में देश-काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन का शंखनाद करते हैं। यह सामाजिक जीवन के विकास की सहज प्रक्रिया है किंतु जब कोई समूह देश में वर्तमान युगजीवन की आवश्यकता और अपेक्षाओं की अनदेखी करके धर्म के नाम पर लगभग चैदह सौ वर्ष पुरानी मान्यताओं को समाज पर बलपूर्वक थोपने पर अड़ जाए और उस जैसी विचारधारा वाले अन्य देशों का समर्थन भी उसे मिलने लगे तो यह स्थिति न केवल उस देश के निवासियों के लिए अपितु अन्य देशों के लिए भी खतरनाक हो जाती है। जिहाद के नाम पर आतंक फैलाते हुए अन्य धर्मों के लोगों को इस्लाम के झंडे के नीचे लाने को व्याकुल इन समूहों की बढ़ती ताकत विश्वशांति के लिए बढ़ता हुआ खतरा है। अन्य देशों में भी ऐसे समूह सक्रिय हैं और अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं। भविष्य में अधिक शक्तिमान होने पर यह उनकी भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को निगल जाएंगे। इसलिए समय रहते सावधान होना और ऐसी शक्तियों पर कठोर नियंत्रण किया जाना आवश्यक है।
तथाकथित धार्मिक समूहों, पंथों, संप्रदायों में बँटे सामाजिक समूहों में अनेक ऐसी कुरीतियां प्रचलित रही है जो समय के साथ आती रहीं और समाप्त होती गयीं। हिंदूसमाज में सतीप्रथा, देवदासी प्रथा, छुआछूत आदि कितनी ही अमानवीय बुराइयां रहीं। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में इनकी स्वीकृति भी मिलती है किंतु आज इनका निर्वाह करने का कोई दुराग्रह कहीं दिखाई नहीं देता। समाज अपने पुराने केंचुल को त्याग कर समरसता की दिशा में अग्रसर है। आज यदि हिंदुओं में से कोई समूह कहे कि उसे हिंदू धर्म में सतीप्रथा, छुआछूत जैसी पुरानी रूढ़ियों को फिर से स्थापित करना है तो उसके इस दुराग्रह का कौन समर्थन करेगा ? जो बुराई जब थी तब थी । यह विचार का विषय नहीं इतिहास का दुखद स्वप्न है जिसे विस्मृत करने में ही समाज की भलाई है। आज क्या होना चाहिए यह विचारणीय है। इसी दृष्टि से भारत एवं अन्य देशों में नई-नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं मान्य हुई हैं किंतु आश्चर्य का विषय है कि कट्टर इस्लामिक विचारक आज भी अपने प्रभाव क्षेत्र में नई व्यवस्थाओं का स्वागत करने और जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। सहअस्तित्व और बंधुत्व के उदार विचारों से समृद्ध इस्लामिक विचारकांे को समर्थन देकर कट्टरता और हिंसक उन्माद का पोषण करने वाली आतंकवाद की पैर पसारती मानसिकता को रोकना ही होगा अन्यथा तालिबानी ताकतें न केवल अफगानिस्तान में अपितु समस्त विश्व में यूं ही रक्तपात करती रहेंगी। विचारणीय यह भी है कि जब अन्य धर्मों के लोग अपनी रूढ़ियों और कुरीतियों को छोड़कर आगे बढ़ रहे हैं तो इस्लाम के कट्टरपंथी तथाकथित बुद्धिजीवी अपने समाज को रूढ़ि मुक्त वातावरण देने के विरुद्ध क्यों अड़े हैं और समाज उनका खुलकर विरोध क्यों नहीं करता ? वह उनका मौन समर्थन क्यों करता है ? जब तक मुस्लिम समाज के अंदर से रूढ़ि-विरोधी स्वर मुखर नहीं होंगे तब तक तालिबानी जिहादी मानसिकता का समाप्त होना कठिन है।
धर्म ईश्वरीय अस्तित्व की स्वीकृति है और मानवीय-मूल्यों की आधार भूमि है। विभिन्न धर्मो की पूजा-पद्धतियां भिन्न हैं, साधना-पथ भिन्न हैं किंतु लक्ष्य एक है– ईश्वर की कृपा प्राप्ति। हिंदूभक्त ईश्वर का अनुग्रह चाहता है, मुसलमान अल्लाह का करम पाने के लिए पांच बार नमाज अता करता है, ईसाई प्रेयर और सिख अरदास करता है। सब उस अदृश्य की कृपा पाने को प्रयत्नशील हैं फिर विरोध क्यों ? जब सारी सृष्टि उस एक शक्ति की ही रचना है फिर संघर्ष क्यों ? वस्तुतः संघर्ष धर्म का नहीं, सत्ता का है सुविधा का है। सत्ता और सुविधा के लिए समूह के विस्तार का है। इसीलिए अफगानिस्तान में तालिबानी मुसलमान दूसरे मुसलमान का खून बहा रहा है। अफगानिस्तान को अशांत कर रहा है और विश्व के अन्य देशों को अशांत करने के लिए आतुर है। इसीलिए विश्व समुदाय तालिबानियों की जीत पर चिंतित है। उदारता पर कट्टरता की जीत मनुष्य के लिए घातक है। पीड़ित अफगानियों के लिए विश्व की शक्ति का आगे आना अत्यंत आवश्यक है।