मंज़र पस मंज़र (शजरे-तन्हा की भूमिका)
यह बात बड़ी अजीब लगती है कि मैं अपने बारे में ख़ुद बात करूँ, लेकिन मैं समझती हूँ कि किसी भी शायर को समझने के लिए इसके ज़हनी इरतक़ा के पस-मंजर को समझना बहुत ज़रूरी होता है। जनाब साहिर लुधियानवी ने य शेर शायद ऐसे ही वक्त के लिए कहा है-
‘‘दुनिया ने तजरबातो हवादस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं।’’
आज का यह दौर, जिसमें हर कदम पर कोई न कोई अल्मिया हमारे सामने आता ही रहता है, कोई न कोई हादसा ज़हन पर तअसुरात छोड़ता ही रहता है, हम किस तरह जी सकते हैं इससे अलग रहकर। इसलिए मैं कुछ अपने बारे में अपने माहौल के बारे में और कुछ अपने फिकरी अरतक़ा के बारे में कहना मुनासिब समझती हूँ।
यूँ तो लिखने का शौक मुझे बचपन से रहा लेकिन मेरी शायरी का सेहरा मेरे वालिद मरहूम की दोस्ताना नशिस्तों के सर है। इन नशिस्तों में अक्सर ऐसे लोग शरीक होते थे जिन्हें अदब व शायरी से कुछ न कुछ लगाव रहता ही था। बड़ी बेटी होने के नाते चाय-नाश्ता की जिम्मादारी मेरी थी लेकिन परदे की पाबंदी की वजह से दरवाजे से लगे रहकर ही शायरी की प्यास बुझानी पड़ती थी। आहिस्ता-आहिस्ता शौक़ जुनून की शक्ल अख्तियार करता गया और मैंने उर्दू शायरी कलाम शुरू कर दिया।
हर आदमी की जिन्दगी में कुछ ऐसे मोड़ आते हैं जो इस के सारे वजूद को ही बदल देते हैं। मेरी जिन्दगी में मरहूम जी.सी. सुहेल का वजूद ऐसा ही मोड़ बनकर आया। वो मेरे बाप, भाई, उस्ताद, दोस्त और भी न जाने क्या-क्या बन गये जब इन्होंने मुझसे मेरे फनकार का तअरुफ कराया। मैं इन्हें कभी नहीं भूल सकती।
आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उर्दू प्रताप के माहाना मुशायरे में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। जिस के नतीजे में उस्ताद साहिर सयालकोटी से ख़तो-किताबत हुई और उस्ताद मरहूम ने मेरी रहनुमरई शुरू कर दी। इन्होंने न सिर्फ मेरे अशआर की इसलाह की, बल्कि अशआर के फिकरी पहलू से भी रोशनास कराया। शेर में थोड़ी-सी तबदीली करके वो मुझे लिख दिया करते थे। मुझे जो थोड़ी-बहुत मुख़्तलिफ बहरों की पहचान हुई है, वह उनकी रहनुमाई का नतीजा है। उन के कितने ही ख़त मेरे लिए आज भी मशअले राह हैं। कभी-कभी तो मेरी ग़ज़ल असलाह करके प्रताप और हिन्द समाचार में छाप भी दिया करते थे।
यह इबतदाई दौर था, और अभी मैं ऐसी ग़ज़लें कह रही थी जो ख़ालस रवायती अंदाज़ में थीं और मेरा अपना कोई नज़रिया फिक्र उभरकर सामने नहीं आया था। एक बात और भी अर्ज़ कर दूँ,साहिर साहब ख़ुद भी क्लासिकी अंदाज़ में ही ग़ज़लें कहते थे और इनकी ग़ज़लों पर उनके उस्ताद जनाब जोश मलसियानी और दाग़ देहलवी की की ग़ज़लगोई का असर था इसलिए मेरा अंदाज़ भी उनकी ग़ज़लगोई से मुतासर था। लेकिन यह दौर बहुत जल्द ख़्त्म हो गया। साहिर साहब की वफात हो गई और मैं अपने रास्ते पर रवां-दवां रही।
मेरी ग़ज़लगोई में एक नया मोड़ उस वक्त आया जब शिमला में 1984 में एक कुलहिन्द मुशयरे में शिरकत का मौका मुझे मिला। इस मुशायरे में बहुत से जदीद लहजा में कहने वाले शायर शामिल थे। मैंने जदीद अंदाज़ की बहुत-सी ग़ज़लें सुनी और उन से मुतासर हुई। उन शोरा से जदीद ग़ज़लगोई के बारे में गुफ्तगू हुई भी हुई, इस तरह मेरा मीलान नये लब्बो-लहजा की तरफ हो गया। मैंने भी जदीद अंदाज़ में ग़ज़लगोई के असलूब को अपनाना शुरू कर दिया। इस तरह मैंने जदीद रंग में ग़ज़लें कहीं और कुछ शौरा, जिनसे मैं मुतासर भी हुई और जिनसे इसतफादह (लाभ) भी किया वह जदीद रंग में कहने वाले पंजाब के जनाब राजेंद्र नाथ रहबर, जनाब मेहर गेरा, जनाब आज़ाद गुलाटी, हिमाचल के शबाब ललित और अरमान शहाबी वगैरह थे। जिन लोगों से मैं कभी-कभार अपनी ग़ज़लों पर गुफ्तगू करके मशवरा कर कर लेती थी। इसी तरह से मुतालआ और दोस्ताना मशवरों के साथ मेरी ग़ज़लगोई का सफर चलता रहा और अभी तक चल रहा है।
मैं रवायती शायरी को अपना वरसा मानती हूँ और रवायत से कटना भी नहीं चाहती। लेकिन रवायती अंदाज़ में शेर कहना मेरे फिक्री नज़रिया के मुताबिक भी नहीं। जदीद लब्बो-लहजा में ताज़गी है, शगुफ्तगी है और इज़हार के लिए अहसासात को नये अंदाज़ के इमकानात हैं इसलिए इस दौर की ग़ज़ल में अलामात का एक ख़ास मकाम है और मैं समझती हूँ कि वो अलामतें जो हमारे माहौल की अक्कासी करती हैं, वो ग़ज़लगोई को फिक्री जहत अता करती हैं।
इस मजमुआ में रवायती अंदाज की ग़ज़लें भी हैं क्योंकि मैंने रवायती अंदाज़ से ही आग़ाज़ किया है। लेकिन बहुत-सी ग़ज़लें इस में नये अंदाज़ की भी हैं जिनका लब्बो-लहजा अलग है। जिन का अंदाज़ अलामती है। मैं कहाँ तक कामयाब हुई हूँ यह तो कारीन ही बतायेंगे लेकिन इतना मैं ज़रूर कहूँगी कि जो कुछ मैंने कहा है वह मैंने महसूस किया है और अपने अहसासात की शिद्दत को मैंने ग़ज़लों का रंग दिया है।
– आशा शैली़