गौतम चक्रवर्ती
जब 24 फरवरी को रूस यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ था, उस समय शायद किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि यह युद्ध इतने दिन लम्बा चलेगा। आज रूस यूक्रेन युद्ध इस स्थिति में जा पहुंचा है कि न तो यूक्रेन पीछे हटने के लिए तैयार है और नही रूस, खैर वर्चस्व के कारण रूस का पीछे हटने का तो मतलब ही नहीं उठता है।
सही बात तो यह है कि यूक्रेन को पहले से ही पता था कि वह रूस से अकेले युद्ध नही लड़ सकता है ऐसे में उसे हथियारों के अलावा सैनिकों की भी जरूरत पड़ेगी। यूक्रेन को NATO और अमेरिका से मिलने वाले हथियार और सहयाता के बल बूते वह इस युद्ध में रूस के सामने 8 महीनों से भी अधिक वक्त तक टिकने में कामियाब हुआ।
वैसे आज जिस स्थिति पर दोनो देश आकर खड़े हुए हैं, उससे तो यही लग रहा है कि इस युद्ध से कहीं न कहीं दुनिया को 60 वर्षों के बाद एक बार फिर से युद्ध जैसी विभीषिका के रूप में सर्वविनाशकारी घटना का सामना करना पड़ सकता है। अभी पिछले ही दिनों जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने परमाणु हमले का जिक्र किया था, तो दुनिया की सांसें थमने लगी थी। इस जंग में अब परमाणु युद्ध का खतरा मंडराने लगा है।
यहां प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में पुतिन यूक्रेन पर परमाणु हमला कर देंगे? अगर कर दिया तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? इस विषय में यदि हम विशेषज्ञों की मानें तो बत्तर से बत्तर स्थिति में भी इस बात की आशंका बहुत ही क्षीण है कि रूस, परमाणु हथियारों का प्रयोग यूक्रेन पर करेगा, यदि मान भी लिया जाए कि वह ऐसा कर भी सकता है तो फिर उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से भारी विरोध और प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। इससे अधिक कुछ और नहीं होगा।
यहां आप और हम लगातार रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध के विषय में लगातार सुनते चले आ रहे हैं लेकिन क्या आपको पता है, कि आखिरकार इन दोनो देशों में युद्ध शुरू होने की वजह क्या है?
इसे समझने के लिए हमें आज से 8 वर्षों पूर्व वर्ष 2014 में जाना पड़ेगा। उस वक़्त रूस समर्थित विद्रोहियों ने यूक्रेन के पूर्वी हिस्से के एक बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया था उसके बाद से आज तक इन विद्रोहियों की यूक्रेन की सेना से लगातार लड़ाइयां होती रही है।
वैसे तो अमेरिका और उसके समर्थित NATO देशों ने रूस पर आर्थिक पाबंदियां लगा कर उस पर कार्रवाई की है जिससे उसके बैंकिग सिस्टम का कनेक्शन इंटरनैशनल स्विफ्ट पेमेंट से कट गया है, इस बात का प्रभाव अमेरिका और यूरोपीय देशों के अर्थव्यवस्था पर तो पड़ाना ही था इसके साथ ही अभी आने वाले भयंकर ठंड के दिनो मे NATO देशों से लेकर अमेरिका तक को गैस और तेल न मिलने से वहां के लोगों को भयंकर ठंड से जूझना पड़ेगा।
इधर बाल्टिक देशों और पोलैंड में नेटो ने 5 हज़ार सैनिकों की तैनाती किए हैं, इसके अलावा रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी और स्लोवाकिया में भी 4 हज़ार सैनिकों को भेजा हैं।
विश्व शक्ति कहलाने वाला देश अमेरिका पर जब अल-कायदा द्वारा अमेरिका पर 9/11 हमले को अफ़ग़ानिस्तान की धरती से अंजाम दिया गया था। तो उसके बाद अमेरिका ने योजनाबद्ध तरीके से वहां से तालिबान को सत्ता से हटा कर अस्थाई रूप से अल-कायदा को बाहर निकाल दिया था।
पूरे बीस वर्षों तक वहां सैनिक कार्यवाही और सुरक्षा की बहुत बड़ी कीमत अमेरिका को चुकानी पड़ी। रुपए – पैसों से लेकर अपने फौजियों तक के ज़िदगियों से उसे हाथ धोना पड़ा। अमेरिकी सेना के 2300 से अधिक पुरुष एवम महिलाओं को जान गंवानी पड़ी और 20,000 से अधिक सैनिक घायल हुए थे यहां पर NATO सैनिक के तौर पर ब्रिटेन के 450 सैनिकों समेत दूसरे देशों के सैंकड़ों सैनिक मारे गए एवम घायल हुए थे।
यहां गौर करने वाली है कि अमेरिका अपने महत्वाकांक्षा और हेकड़ी के कारण NATO सैनिकों को अपनी ओर से आतंकवादियों के विरुद्ध लड़वाता रहा। आखिरकार पूरे 20 वर्षों के बाद अफगानिस्तान में आतंक और आतंकवादियों के पूरी तरह से खात्मा किए बिना ही अमेरिका को अपने सैनिक साजो सामानो को वहीं पर छोड़ कर उसे निकालना पड़ा। ठीक उसी तरह यूक्रेन को अमेरिका सहायता देकर स्वयं यूक्रेन को रूस से लड़वा कर अपने नए पुराने हथियारों को यूक्रेन के हाथ बेच कर अपने आप को बहुत बड़ा खिलाड़ी समझ रहा है। इसी को कहते हैं “मिया की जूती मिया का सर”।
- (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )