वीर विनोद छाबडा
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल….आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की…हम लाये हैं तूफानों से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के…(जागृति)….बिगुल बज रहा आज़ादी का गगन गूंजता नारों…(तलाक़)….देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान…(नास्तिक). पचास के सालों में जब होश संभालना सीखा था तो कानों ने यही गीत गूंजते सुने. भुजाएं फड़कने लगीं. चेहरा गुस्से से सुर्ख होने लगा. किसने गाये? किसने लिखे? तब ये बहुत महत्वपूर्ण नहीं था. कानों को भले लगे. थोड़ा बड़े हुए. पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा. शिक्षकों, माता-पिता और बड़े-बुज़ुर्गों के मुंह से सुना. अपने मुल्क के बारे में जाना. जाना कि हम अंग्रेज़ों गुलाम भी थे. तन पर एक लंगोटी बांधे एक गांधी बाबा आया. उसके हाथ में थी एक सोटी. समंदर की लहरों पर राज करने वाली मजबूत अंग्रेज़ी हुकूमत की दो सौ साल की गुलामी से हमें आज़ादी दिलायी. और फिर यह भी पता चला कि आज़ादी के बाद इस मुल्क को इसी के बंदों ने छीलना और अंदर से खोखला करना शुरू कर दिया है और इसकी मुख़ालफत बाआवाज़-ए-बुलंद करने वाला कवि प्रदीप है, जो उक्त गीतों का रचियता है.
चलो चले मां सपनों के गांव में कांटों से दूर कहीं फूलों की छांव में…ये लोरी सुनिए तो नींद आ जाए. यह भी प्रदीपजी हैं जिनका आज जन्मदिन है. 1962 में चीन ने पीठ में छुरा घोंपा। मुल्क घायल हुआ. तब प्रदीप जी ने जोश भरने के लिये लिखा – ऐ मेरे वतन के लोगों…इसे लता जी ने जोश भरने के लिये जब लालकिले की प्राचीर से गाया तो पूरा मुल्क एकबद्ध हो गया. प्रधानमंत्री नेहरू तक रो दिये. पूछा, किसने लिखा? आयोजक एक दूसरे के मुंह ताकने लगे. प्रदीप जी को तो न्यौता देना ही भूल गए थे. बाद में नेहरू जी ने उन्हें घर पर बुलाया और राष्ट्र कवि का दर्जा दिया.
इस गीत को लिखने की प्रेरणा प्रदीपजी को चीन के विरूद्ध युद्ध में शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भट्टी के बलिदान से प्राप्त हुई. प्रदीप जी का संगीतकार चितलकर रामचंद्र से गीत-संगीत के मामले में एक लंबा सहयोग रहा है और गहरी मित्रता भी. स्वाभाविक था कि इसका संगीत चितलकर को ही तैयार करना था. लेकिन इसे आवाज़ देने के लिए आशा भोंसले चितलकर की पहली पसंद थी. मगर प्रदीप को लगा लता सर्वश्रेष्ठ होंगी. चितलकर और लता की उन दिनों अनबन थी. प्रथमतः लता ने मना भी कर दिया. मगर जब प्रदीपजी के कहने पर उन्होंने इस गीत को सुना तो वो तैयार हो गयीं. और इस प्रकार इतिहास बना. इधर आशा का दिल टूट गया. राय अपनी अपनी है. कुछ विद्वानों के विचार से यदि प्रथम पसंद आशा ने इसे गाया होता तो भी बेहतर होता.
उज्जैन के एक कस्बे में 06 फरवरी 1915 को जन्मे रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी कवि सम्मेलनों में खूब अच्छा गाते थे. अच्छी लोकप्रियता मिली. उनका नाम बहुत लंबा था. शुभचिंतकों के कहने पर उन्होंने अपना उपनाम रखा, प्रदीप. इस नाम से वो इतना विख्यात हुए कि मूल नाम कहीं गुम हो गया. लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान उन्हें बांबे टाकीज़ के हिमांशु राय ने ‘कंगन’ फिल्म के गाने लिखने का अवसर दिया. फिर सूनी पड़ी है सितार मीरा के जीवन की…कंगन (1939) के लिए इसे लीला चिटणीस ने गाया. बड़ा मशहूर हुआ यह गाना. इसके साथ ही प्रदीप जी की फिल्मों में मांग बढ़ गयी. वह गाँव से सामान समेट कर बंबई आ गए. न जाने आज किधर मेरी नाव चली रे…(झूला)… इसे अशोक कुमार की आवाज़ मिली.
प्रदीप जी की मांग बढ़ती जा रही थी. प्रदीप जी को असली पहचान मिली 1943 में रिलीज़ ‘किस्मत’ से. इसमें उनका लिखा – आज हिमाला की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है…अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना द्वारा गाया देशभक्ति से ओतप्रोत था यह गाना. लेकिन अंग्रेजी हुकूमत की सेंसर ने इसे पारित करने से मना कर दिया. मगर अंग्रेज़ों को दूसरे तरीके से समझाया गया, द्वितीय विश्वयुद्ध के संदर्भ में इससे अंग्रेज़ कौ़म का सिर ऊपर होना है. फिल्म रिलीज़ हो गयी. कलकत्ता में साढे-तीन साल तक चल कर इसने इतिहास रचा. बाद में जब अंग्रेज़ बहादुर को इसके सही अर्थ की ख़बर हुई तो प्रदीप जी के नाम वारंट कट गया. उन्हें कई महीने भूमिगत रहना पड़ा.
आज़ादी के बाद ‘जागृति’ और फिर ‘नास्तिक’ में उन्होंने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत बेहद जज्बाती गीत लिखे तो उन्हें देशभक्ति से ओतप्रोत गीतों का राष्ट्रभक्त कवि मान लिया गया. ठीक है वो राष्ट्रभक्त कवि थे. लेकिन वो एक विधा में बंध कर रहने वाले नहीं थे.
जिस मुख्यमंत्री ने पद की शपथ लेने के बाद गाना गाकर इतिहास रचा था, वो अरविंद केजरीवाल थे. इसके लिये उन्होंने प्रदीप जी का ही गीत चुना – इंसान का इंसान से हो भाई-चारा, यही पैगाम हमारा….(पैग़ाम-1959). ‘पैग़ाम’ में प्रदीप जी का ये गीत भी बड़ा मशहूर हुआ था – अपना तो बारह महीनों दीवाला…और ‘संबंध’ के ये गीत – चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा तू चल अकेला… जो दिया था तुमने एक दिन मुझे वही प्यार दे दो, एक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो…
प्रदीप जी के गीतों के भीतर भी बहुत दर्द है। ‘ऐ भारत माता के बेटों, सुनो समय की बोली को, फैलाती है फूट यहां पर दूर करो उस टोली को…. आती है आवाज़ यही, मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारों से, संभल कर रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से…रोती सलमा, रोती है सीता, आज हिमालय चिल्लाता है कहां पुराना वो नाता है…. आज हर आंचल को है खतरा, आज हर घूंघट को है खतरा, खतरे में लाज बहन की, खतरे में चूड़ियां दुल्हन कीं….राम के भक्त, रहीम के बंदे, रचते आज फरेब के फंदे…दे दी आज़ादी बिना खड्ग, बिना ढाल साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल…
आज के हालातों के परिप्रेक्ष्य में प्रदीप जी के गाने बेमिसाल हैं. उन्होंने सिर्फ देशभक्ति के गीतों में ही नहीं कमाल किया, बल्कि भक्ति गानों में भी वो बेमिसाल रहे – यहां वहां, जहां तहां मत पूछो कहां कहां है संतोषी मां… मैं तो आरती उतारूं रे… ‘जय संतोषी माता’ की बेमिसाल कामयाबी के पीछे प्रदीप जी के गीतों का भी बहुत बड़ा योगदान है.
प्रदीप जी ने लगभग 1700 गीत लिखे. इसमें 72 फिल्मों में लिखे गीत भी शामिल हैं. स्वंय भी अनेक गीत गाये. सर्वाधिक लोकप्रिय थे – देख तेरे संसार की हालात क्या हो गयी भगवान…(नास्तिक 1954)….कैसी यह मनहूस घड़ी है, भाईयों में जंग छिड़ी है…(अमर रहे ये प्यार 1961). आज के दिन और खासकर आज के मौहाल में प्रदीप जी को याद करना बहुत जरूरी है. यदि प्रदीप जी न होते तो इतिहास ने बहुत कुछ खोया होता. 11 दिसंबर 1998 को को उन्होंने संसार को अलविदा कह दी। भारत सरकार ने उनकी याद में एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया और 1997 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरुस्कार से भी नवाज़ा. वस्तुतः वो भारत रत्न के भी सही हक़दार हैं।