वर्षों पहले मैं लखनऊ से इरोड सरकारी काम से जा रहा था। एक घटना घटी। मैं अपने पानी पीने की बोतल में नागपुर स्टेशन के प्लेटफार्म पर पानी भरने के लिए उतरा। कान में एक आवाज़ पडी़। बाबू जी हमें रामेश्वरम् जाना है हमें चार सीट दे दीजिए। उत्तर सुनाई दिया आगे जाओ यहाँ कोई सीट खाली नहीं है। मैं समझ रहा था दोनों ओर की बात को। एक युवक अपनी माता को तीर्थ करवाने ले जा रहा था। साथ में धर्म पत्नि और एक दस बारह साल की छोटी बहिन के साथ। वे सज्जन परेशान थे।
अपनी आदत के अनुसार मुझ से रुका न गया। मैंने उनसे टिकट पकडी़ और टीटी बाबू के पास जाकर कहा कि मैं एक रेल अधिकारी हूँ और मेरे मित्रों को चिन्नई तक चार सीट दे दीजिए। उसने बडी़ शालीनता से कहा आप उन्हें बैठा दीजिए मैं सीट दे दूँगा। मैं उस सज्जन को टिकट वापिस कर कहा मैं आगे एसी में उक्त सीट पर हूँ। कोई समस्या हो तो बताना।
अगले दिन सुबह मैं अपना बैग उठा कर अपने ठहरने के स्थान की ओर बढ़ने लगा। अचानक वह सज्जन भागते हुए आ रहे थे बोले आपकी कृपा से हम यहाँ तक पहुँच गये हैं अब रामेश्वरम् भी पहुँच ही जायेंगे। मैंने पूछा रामेश्वरम् कब जाना है। उन्होंने कहा जब की सीट मिल जायेगी। अभी टिकट भी नहीं लिया। मैंने पूछा आज दिन भर क्या करोगे। उसने कहा मद्रास घूम लेंगे। माता जी को घूमा देंगे। कभी आये नहीं है।
मैंने पूछा कि आप यूँही बिना आरक्षण के कैसे चल दिये। सहज भाव में उसने कहा हम बिलासपुर रहते हैं वहाँ सभी लोग बस नागपुर आकर हमारी तरह ही यात्रा करते हैं।
पता नहीं क्या हुआ मेरे मन में एक सहानुभूति की लहर दौड़ पडी़। मैंने कहा आप सब आइये मेरे साथ। फिर आराम से जहाँ मुझे ठहरना था उन्हें ले गया। सामान रखते ही मैंने कहा कि बारी बारी सभी जल्दी से स्नान कर लें। हम सब ने स्नान किया। उन्हें लेकर कैफेटेरिया ले गया। मैंने कहा अपनी अपनी रुचिनुसार सभी नाश्ता ले लें। नाश्ता करके मैंने एक टैक्सी वाले को तय किया और मद्रास की कई जगह जाने की बात की। मेरी गाडी रात को थी और उनकी सांझ को थी।
दिन भर हम एक जगह से दूसरी जगह घूम कर वापिस आये सामान उठाया और उस स्टेशन पर गये जहाँ से उन्हें रामेश्वरम् की गाडी़ मिलनी थी। चार टिकट लिए और टिकट लेकर टीटी कार्यलय जाकर अपना परिचय दिया और चार सीट दिलवा दी। फिर उन्हें उनकी सीट पर भी बैठा दिया।
अचानक मन में ख्याल आया कि आगे इन्हें खाने को कुछ भी नहीं मिलेगा। मैंने सामने फूड कार्नर से लपक कर चार पैकट कर्ड राईस के लिये और खिड़की से पकडा़ कर कहा आगे खाना नहीं मिलना था यह आप खा लेना। बात बहुत बडी़ नहीं थी। अचानक उनकी छोटी बहिन ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और अपने माथे पर लगा कर कहा भोले शंकर आप मुझ से नहीं छुप सकते। आप भेष बदल कर कल से हमारी मदद कर रहे हो। मैंने बिलासपुर से चलते समय ही भैया को कहा था कि भोले नाथ सब व्यवस्था कर देंगे। गाडी़ चल दी।
मैं उस बेटी की दिव्य सोच को सुन कर सोच रहा था कि ऐसे ही भोले भाव वालों को ही त्रिपुरारी मिल सकते हैं। मैं सोच रहा था मैंने कुछ नहीं किया भोले शंकर ने मेरे को माध्यम बना कर उस बेटी के विश्वास को दृढ़ कर दिया । वैसे भी मेरा मानना है कि ईश्वर ही एक दूसरे के माध्यम से ही एक दूसरे के काम करवाता है।
- बालकृष्ण गुप्त