रामधनी द्विवेदी
चीन ने पिछली शती के सातवें दशक में जब अपने यहां बेयरफुट डाक्टर की बुनियाद डाली थी तो उसके पीछे उसकी मंशा देश के सबसे निचले स्तर तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की थी। आज चीन की चिकित्सा सुविधा इतनी विकसित है कि भारत से प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में छात्र वहां चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई के लिए जाते हैं और दुनिया की अधिकतर फार्मा कंपनियां कच्चे माल कि लिए चीन पर ही निर्भर हैं। बेयरफुट डाक्टर अब भी वहां काम करते हैं लेकिन उनका नाम बदल कर विलेज डाक्टर कर दिया गया है। संभवत: उसी से प्रेरित होकर भारत के राजस्थान में बेयरफुट कालेज की स्थापना की गई। इसका मकसद भी गांव के अपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों को बेसिक तकनीकी जानकारी देकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना,आर्थिक रूप से मजबूत करना और आसपास के लोगों को अपनी जानकारी का लाभ दिलाना था। बेयरफुट कालेज की स्थापना 1972 में सोशल वर्क रिसर्च सेंटर के अंतर्गत की गई थी।
अप्रैल के आखिरी सप्ताह की दोपहर जयपुर में जवाहर कला केंद्र के कॉफी हाउस में कुछ पत्रकारों के साथ गैर सरकारी संगठन एमकेएसएस (मजदूर किसान शक्ति संगठन) के कमल टांक से मुलाकात हुई तो उन्होंने विश्व भर में विख्यात सेालर ममाज (सौर माएं) के बारे में बताया कि कैसे बेयरफुट कालेज से प्रशिक्षित होकर निकली निरक्षर महिलाओं ने दुनिया भर के अंधेरे गांवों में रोशनी पहुंचायी है। ये सौर माएं सोलर सेल असेंबल कर सोलर पैनल बनाने, सेालर लालटेन और इसी तरह के छोटे मोटे उपकरण असंबल करने,खराब हो जाने पर उनकी मरम्मत करने में दक्ष होती हैं। राजस्थान के एक छोटे से गांव तिलोनिया से हुई छोटी सी शुरुआत आज लगभग सौ देशों तक पहुंच गई है। इन देशों की महिलाएं भारत आती हैं और यहां से प्रशिक्षित हो कर अपने देश जाने के बाद वहां का अंधेरा दूर कर रही हैं।
इन्हीं बेयरफुट कालेज से प्रशिक्षित लोगों की उपलब्धिओं पर जवाहर कला केंद्र में प्रदर्शनी लगी थी जिसमें पोस्टरों के माध्यम से सभी जानकारी दी गई थी। शिल्प ग्राम में वहां के उत्पादों की भी प्रदर्शनी थी। राजस्थान के ये कालेज न सिर्फ सोलर सेल तकनीक का प्रशिक्षण दे रहे हैं बल्कि गांवों की अर्थव्यवस्था में शामिल हर तकनीक का प्रशिक्षण उनके पास है। यहां तक कि प्राथमिक चिकित्सा और छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज करने का तरीका भी बताया जाता है। ग्रामीण महिलाओं को सफेद कोट पहने किसी सुलझे हुए डेंटिस्ट की तरह दांतों की जांच करने और प्राथमिक उपचार करते देखने का चित्र बरबस ध्यान खींचता था। इसी तरह कपड़ों पर कढ़ाई करते, दरी,चादर,तकिए और कुशन के खोल, कुर्ते-पाजामे आदि बनाने का प्रशिक्षण भी मिलता है।
चमड़े के बने आधुनिक सामान बाजार में मिलने वाले फैशनेबल सामान की तुलना में अधिक मजबूत और टिकाऊ होता है,बस उन्हें जरा और आकर्षक बनाने की जरूरत अवश्य लगी। ग्राम्य शिल्प को बाजार में जगह बनाने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक होना होगा। मैंने ग्रामीण महिलाओं द्वारा कतरनों और भूसे से बनी छोटी छोटी चिडि़यां भी शिल्प ग्राम में देखीं लेकिन उनकी बिक्री होते नहीं देखा क्यों कि इस तरह के खिलौने मैने बचपन में अपनी मां को बिना किसी प्रशिक्षण के बनाते देखा जिससे वह बच्चों को बहलाया करती थी। शिल्प ग्राम में दिखे ऐसे खिलौनों में कोई नवोन्मेष नहीं दिखा। इसी तरह लकड़ी के परंपरागत सामान ही दिखे। इस क्षेत्र में अभी और काम करने गुंजाइश बनी हुई है।
मेरे बचपन में गांव अपने में आत्मनिर्भर इकाई होते थे। आधुनिक तकनीक में भले ही वे पीछे हों लेकिन अपनी जरूरत की हर चीज वे खुद बनाते थे और उनके बिगड़ जाने पर मरम्मत भी कर लेते। कभी घरेलू या किसानी की चीजों के लिए खरीदारी करने गांव के लोगों को शहर जाते नहीं देखा। मेरे दादा जी और ताऊ लगभग सभी काम खुद कर लेते थे। जो तकनीकी काम होता उसे गांव के बढ़ई और लुहार कर लेते। जब बड़ी मशीनों ने गांवों की ओर रुख किया तो उसकी खरीद और मरम्मत के लिए ग्रामीण शहरों पर निर्भर होने लगे। गांव के छोटे कारीगरों की रोजी रोटी बड़ी मशीनों ने छीन ली। बेयरफुट कालेज इन्हीं छोटे कारीगरों को फिर से तैयार करने की कोशिश कर रही है।