हिन्दुस्तान की जेलों में महिला कैदियों की स्थिति जिन्दा लाशों से अधिक नहीं हैं। ऐसा तब है जब मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग पूरी तरह से सक्रिय भूमिका में है। इसके पीछे का कारण है अंग्रेजो के शासन काल में बना कारागार मैनुअल। देखा जाए तो ये मैनुअल मौजूदा समय में बंदियों के लिए किसी यातना के सर्टिफिकेट से कम नहीं है। अंग्रेजों के शासनकाल 1874 में बने इस जेल मैनुअल में अब बदलाव की तैयारी हो रही है।
हाल ही में ‘उत्तर प्रदेश प्रिजन एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी’ ने नया मैनुअल तैयार किया है। कहा जा रहा है कि ये मैनुअल महिला कैदियों के लिए ही नहीं बल्कि पुरुष कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा में कारगर साबित होगा। नया मैनुअल कब अस्तित्व में आयेगा और आयेगा भी या फिर फाइलों में ही दम तोड़ देगा? इस पर संशय बरकरार है लेकिन मौजूदा स्थिति बद से भी बदतर हो चुकी है। महिला कैदियों के मामले में स्थिति ये है कि महिला चाहें धनाढ्य परिवार से हो या फिर निर्धन परिवार से। जेल में उसका शोषण लगभग तय माना जाता है। हालांकि जेल के कर्मचारी इस बात से इनकार करते हैं लेकिन जेल की सजा भुगत चुकी महिलाएं इस बात से इत्तेफाक रखती हैं कि जेलों में महिलाओं की दशा ठीक नहीं। गरीब घर की महिलाओं के लिए तो जेल में सजा काटने का मतलब है जिन्दा लाशों की तरह जीवन बिताना।
महिला कैदियों पर खुलकर कलम चलाने वाली लेखिका चन्द्रकला की यह ग्राउण्ड रिपोर्ट इस बात की गवाह है कि जेलों में महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं। चन्द्रकला ने अपनी इस रिपोर्ट में प्रमाण के साथ सच्चाई उजागर की है।
सावित्री को जेल में 6 साल हो गये हैं, जमानत तो नहीं हुई केस भी जाने कब खतम हो? पति के अत्याचारों से तंग आने पर एक दिन हाथापाई में उसकी हत्या हो गयी। अब मायके और ससुराल वालों के साथ ही बच्चे भी पिता की हत्यारिन मानकर उसकी सुध नहीं लेते हैं। रामरति से उसके अपनों ने भी इसलिए मुहं फेर लिया कि पति और ससुराल वालों के अत्याचारों से तंग आकर अपने दोनों बच्चों को मारकर खुद पंखे में लटक गयी थी, लेकिन बचा ली गयी। वह मरी तो नहीं लेकिन अब जिन्दा लाश बनकर जेल में सजा काटने को मजबूर है।
फरज़ाना की बहू ने गुस्से में जहर खा लिया और दहेज हत्या में बेटा और मां दोनों पिछले आठ साल से जेल में हैं। कोई करीबी नहीं है जो कि भागदौड़ करके उनकी हाई कोर्ट से जमानत करवा ले। महज 19 साल की थी जब संगीता जेल में आयी, प्रेमी के साथ पति की हत्या में शामिल होने के अपराध में। तीस साल की होने को है न प्रेमी ने पूछा न मायके वालों ने। सीधी-सादी गांव की बहू जेल के कायदे सीख कर दबंग तो हो गयी है लेकिन उसके भीतर का दर्द उसकी खामोश आंखें बयां करती हैं। सालों, महिनों, दिनों को गिनती भूलती कितनी ही महिलाएं जेल की कैद से आज़ादी की चाहत में असमय ही दुनिया से चली जाती हैं या इतनी संवेदनहीन हो जाती हैं कि उनका जीवन महज खाना और सोने तक ही सीमित रह जाता है।
आज़ादी का ख्वाब दिल में पाले देश की जेलों में कैद महिलाओं की अनगिनत कहानियां हैं। इनमें से कितनी गुनाहगार हैं और कितनी ही बेगुनाह हैं, यह आमतौर पर कानून नहीं, बल्कि पुलिस के गढ़े गये सबूतों के साथ-साथ समाज और अदालतों का पितृसत्तात्मक नज़रिया तय करता है। कुछ पेशेवर अपराधी महिलाओं को छोड़ दें तो अधिकांश महिलाएं समाजिक मूल्यों और महिला विरोधी परम्पराओं के दबाव, पुरुषों द्वारा गुलाम बनाकर रखने की मनोवृत्ति और औरत के प्रति परिवार के उपेक्षित रवैये के कारण अपराधी बन जाती हैं या बना दी जाती हैं, जिस पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है।
आमतौर पर ही जेलों में परिजनों का आना खर्चीला होता है यदि बन्दी स्थानीय जेल में न हों तो यह खर्च और भी बढ़ जाता है। चूंकि महिला बन्दियों का स्वतन्त्र आर्थिक अस्तित्व तो होता नहीं है इसलिए उनसे मुलाकात करने आने वालों का प्रतिशत भी बहुत कम होता है। इसके साथ ही महिला अपराधियों के प्रति समाज का नज़रिया पुरुषों की अपेक्षा अधिक नकारात्मक होता है, जिससे उनकी मिलाई प्रभावित होती है। महिला जेलों की संख्या कम होने से भी कईं बार महिलाओं को दूर की जेलों में भेज दिया जाता है, इसलिए परिजनों की मिलाई और मुश्किल हो जाती है। हमारे देश की जेलें सबसे पिछड़े और प्रतिक्रियावादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए जेल बन्दी महिलाओं के लिए परम्पराएं, धर्म, सामाजिक मानदण्ड के साथ ही कानून भी ज्यादा कठोर हो जाते हैं। उनको जेल में आते ही नैतिक और सामाजिक रूप में अपराधी मान लिया जाता है और उसका आकलन आमतौर पर अश्लील नज़रिये से किया जाता है। गरीब, आदिवासी और दलित महिला बन्दियों की समस्याएं तो दुगनी होती हैं। उन्हें जेल कर्मचारियों के अतिरिक्त सवर्ण और दबंग महिला बन्दियों की क्रूरताओं का सामना भी करना पड़ता है। देश की कईं जेलों से महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाओं का छन-छन कर बाहर आना इसको पुष्ट करता है। समाज के पिछड़ेपन और अमानवीयता का नग्न रूप कई मायनों में जेल में दिखता है।
भारतीय जेलें पुलिस महकमे की भागीदारी के बिना अधूरी ही मानी जायेंगी। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि आज भी पुलिस-प्रशासन का जेण्डर दृष्टिकोण सामन्ती और पिछड़ा है। यहां तक कि महिला पुलिस अधिकारी और कर्मचारी भी उन्हीं महिला विरोधी मानदण्डों और गालियों का प्रयोग बेधड़क करती हैं जो कि पुरुषों द्वारा किये जाते हैं। सर्वण पितृसत्तात्मक मानसिकता का इतना अधिक प्रभाव यहां पर होता है कि पुलिसकर्मी महिला मामलों को संवेदनशील तरीके हल करने में सक्षम नहीं होते हैं। अधिकांश तो महिला को अपराधी सिद्ध कर देने भर की ड्यूटी तक ही सीमित रहते हैं। कई बार यह देखा गया है कि महिलाकर्मी पुरुषवादी दृष्टिकोण से महिला अपराधियों के साथ ज्यादा अमानवीय और अभद्र व्यवहार करती हैं। चोरी, देह व्यापार से जुड़ी या गरीब महिला अपराधियों, विशेषकर दलितों और मुस्लिम महिलाओं की गिरफतारी के समय पुलिस कर्मी नियमों का पालन नहीं करते हैं। पुरुष कर्मियों द्वारा महिलाओं के साथ महिला पुलिस कर्मी की उपस्थिति में भी अपमानजनक व्यवहार किया जाता है। ऐसे में वे या तो चुप रह जाती हैं या फिर इस प्रक्रिया में काफी हद तक शामिल हो जाती हैं।
जेल के शौचालय गन्दगी का ढेर होते हैं। आमतौर महिला बैरिकों के भीतर एक शौचालय होता है, जिसका इस्तेमाल 40 से 50 महिलाएं लगभग 12 घण्टे (शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक) तो करना ही होता है। बैरिक के बाहर भी तीन या चार शौचालय ही होते हैं और इतने गन्दे कि उनमें पैर तक न रखा जा सके। इनकी सफाई आज भी दलित जाति की महिला और पुरुष के जिम्मे होती है। जेलों में जगह की कमी, शौचालय की कमी, पानी की कमी के कारण महिला बन्दी असमय ही कईं प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं।
थानों और अदालतों के शौचालय भी कम गन्दे नहीं होते। सफाई की कोई समुचित व्यवस्था नहीं होती। यदि कभी कोई बन्दी इस विषय में आवाज़ उठाता भी है तो उसको चुप कराने की कईं तरकीबें पुलिस के पास होती हैं।
जब महिला बन्दियों को कोर्ट की पेशी के लिए ले जाया जाता है तो महिलाएं पूरा दिन संकोच और डर से शौचालय सम्बन्धी समस्याओं को नहीं बता पातीं। कोर्ट में माहिला बन्दियों के लिए कोई अलग व्यवस्था न होने के कारण महिला बंदी दैनिक क्रिया को रोकने की भरसक कोशिश करती देखी जाती हैं। स्थिाति यह है कि यदि कोई महिला हिम्मत करके अपनी जरूरत बता भी दे तो महिला गार्ड उसको धमका देती हैं या फिर पुरुषकर्मियों की घूरती निगाहें उनकी जरूरतें दबा देती हैं। अदालत की तारीख के दिन यदि किसी महिला बन्दी का महावारी का समय हो तो आठ से दस घण्टे जमीन पर बैठना अत्यंत पीड़ादायी और अमानवीय होता है।
अदालतों में बन्दी महिलाओं के प्रति पुलिस से लेकर अदालतों में मौजूद कर्मचारी, वकील और जज आदि का महिला विरोधी नजरिया भी महिला बन्दियों के तनाव को बढ़ाने में सहायक होता है। महिला बन्दियों को पुरुष बन्दियों के साथ एक ही बन्दी गाड़ी में भीड़ के साथ जिस तरह से ले जाया जाता है उसको भी रेखांकित करने की सख्त ज़रूरत है। हालांकि महिला बन्दियों की संख्यानुसार उनके साथ महिला गार्ड को बैठना होता है लेकिन वे पुरुष बन्दियों की भीड़ से खुद को बचाने की खातिर ड्राईवर के साथ वाली सीट पर बैठ कर जाती हैं और महिलाओं को पुरुष बन्दियों के भरोसे छोड़ दिया जाता है। जहाँ उनके साथ जो व्यवहार होता है उसको बताने की आवश्यकता नहीं। यह यातना एक महिला बंदी ही समझ सकती है।
मौजूदा समय में जब स्वास्थ्य समास्याएं अपने पीक पर हैं ऐसे में क्या महिलाओं के स्वास्थ्य पर जेलों में विशेष ध्यान दिया जा रहा है? तथ्यानुसार समाज में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के स्वास्थ्य की अनदेखी की जाती रही है। जब बाहरी समाज में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल अवस्था में हों तो जेल में महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल दूर की कौड़ी है। बकौल चन्द्रकला, जेल के भीतर महिला बन्दियों को न केवल शारीरिक तौर पर बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है बल्कि उन्हें कई प्रकार के मानसिक दबावों से भी रूबरू होना पड़ता है। चूंकि अधिकांश जेलों की सारी व्यवस्था पुरुषों के हाथ में होती है इसलिए चाहकर भी व्यवस्थाओं को सुधारा नहीं जा सकता।यहां पर कार्यरत नाममात्र की महिला कर्मचारी ही जब पितृसत्तात्मक मूल्यों की वाहक बनी हों तो वे महिला बन्दियों के हितों की रक्षा कैसे कर सकतीं हैं। परिणामस्वरूप जेल की व्यवस्था सुधार गृह के बजाय यातना गृह में नजर आने लगती है।
लेखिका चन्द्रकला का मानना है कि चूंकि हमारे पूरे समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर नकारात्मक नज़रिया बना हुआ है लिहाजा उसका प्रभाव जेल में भी नजर आयेगा ही। जेल में लम्बा समय बिताने, परिवार की उपेक्षा के कारण कितनी ही महिलाएं मानसिक रोगों की शिकार हो जाती हैं लेकिन इसको स्वास्थ्य के नज़र से देखने के बजाय महिला को उदण्ड मानकर उनकी पिटाई की जाती है।
बन्दियों की मानसिक दिक्कतों को समझना और उनको हल करने की दिशा में उपयुक्त डाक्टरों की नियुक्तियां देश के एक या दो जेलों तक ही सीमित हैं। देखा जाए तो मानसिक स्वास्थ्य के प्रति भारतीय समाज में ही जागरूकता बहुत कम है। एक लाख भारतीयों में महज 0.2 प्रतिशत मनोचिकित्सक हैं। ऐसी स्थिति में यदि जेल में मनोचिकित्सकों की उपलब्धता की बात करें तो सम्भावना बहुत कम हो जाती है।
एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, नर्स या महिला हैल्थ वर्कर आदि की नियुक्ति या फिर समय-समय पर महिलाओं की जांच की व्यवस्था का प्राविधान देश की अधिकांश जेलों में आज तक नहीं किया जा सका है। जेल मैनुअल के अनुसार महिला बन्दियों को सैनेटरी नैपकीन या कपड़ा मिलना चाहिए लेकिन अधिकांश जेलों में अन्य जरूरी मदों की तरह इसका व्यय भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। परिणामस्वरूप इसका इन्तजाम महिला कैदियों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी बन जाती है। उचित साफ-सफाई के अभाव में भी कई बीमारियां शरीर में घर करने लगती हैं। महिला कैदियों के साथ स्थिति ये है कि वे तकलीफ बढ़ जाने की हद तक किसी को नहीं बतातीं।महिला जेलों में आमतौर पर महज एक पुरुष कम्पाउडर के भरोसे ही महिला बन्दियों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती है।
पुरूष चिकित्सक की वजह से महिलाएं अपनी परेशानी खुलकर नहीं बता पातीं। रही बात दवाइयों की तो जेलों में कुछ गिनी-चुनी दवाइयों से ही पूरी चिकित्सा व्यवस्था संचालित हो रही है और वह भी दशकों से। गम्भीर बीमारी की दशा में जेल के बाहर सरकारी अस्पताल ले जाने की व्यवस्था है। इस व्यवस्था में भी तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अकसर गार्ड के अभाव में महिला बंदियों को समय पर इलाज नहीं मिल पाता। यदि यह कहा जाए कि बन्दियों का जीवन हमेशा जेल कर्मचारियों की इच्छा पर ही निर्भर है तो शायद ये गलत नहीं होगा। अधिकांश मामलों में देखा गया है कि महिला बन्दियों को जेल से सरकारी अस्पताल पहुंचाकर अपनी ड्यूटी पूरी मान ली जाती है।
वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार जेलों में बंद 27 प्रतिशत महिलाएं अशिक्षित हैं और 41.6 प्रतिशत 10वीं से कम पढ़ी हुई हैं। इनमें ज्यादा संख्या आमतौर पर ग्रामीण और गरीब महिलाओं की ही होती है। ऐसी महिलाओं को उन पर लगे अपराधों की धाराओं का ज्ञान तो जेल में आकर हो जाता है लेकिन पूरी न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी नहोने और वकील के खर्चों का इन्तजाम न कर पाने के कारण कई बार अपराध की सजा से अधिक समय तक जेल में रहने को मजबूर होना पड़ता है।
जानकर हैरत होगी कि जेल कर्मचारियों और लम्बरदारों द्वारा अक्सर जेल से बाहर निकालने के नाम पर महिलाओं का शोषण किया जाता है। यदि बन्दी के परिजन समय-समय पर पैसा देते रहते हैं तो उसकी हैसियत बेहतर बनी रहती है अन्यथा सब कुछ जेल कर्मियों के भरोसे। जेल वार्डन को मिलाई के पैसों से लेकर जो सामान घर से आता है उसका हिस्सा देना जेल का अघोषित नियम है। जो जितना अधिक पैसा और सामान देता है उसकी सुविधाएं भी उसी अनुरूप तय होती हैं। कुछ महिला बन्दी जो जेल कर्मचारियों की चापलूसी करती हैं, उनको भी कई प्रकार की सहूलियतें मिल जाती हैं। इस सब का खामियाजा गरीब और उन बन्दियों को भुगतना पड़ता है जिनकी कोई मिलाई नहीं आती है।
जेल मैन्युल में गम्भीर अपराधों में शामिल महिलाओं और सामान्य अपराधों वाली महिलाओं को अलग-अलग रखने का प्राविधान है लेकिन जेलों में इतनी अधिक भीड़ होती है कि यह व्यवस्था लागू नहीं हो पाती। ऐसे में कई बार मासूम और परिवार से उपेक्षित लड़कियों और महिलाओं का अपराध जगत में दुरूपयोग होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। बिहार के केन्द्रीय कारागार में सजा काट चुकी एक महिला ने प्रधानमंत्री को एक खत लिखा।
इस खत में चौंकाने वाले खुलासे किए गए हैं। इस खत में तमाम अनियमितताओं का उल्लेख तो किया गया है साथ ही यह भी लिखा है कि जेल में कुछ महिला बन्दियों को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए भी मजबूर किया जाता है। जेल कर्मियों की बातें न मानने पर बेरहमी से पिटाई की जाती है। सजायाफ्ता या लम्बा समय जेल में बिताने वाले बंदियों से जेल प्रसाशन अनाधिकृत काम भी करवाता है। इसके एवज में ऐसे बन्दियों को अतिरिक्त सुविधाएं मिलने लगतीं हैं।जेल की भाषा में ये बंदी राइटर कहलाते हैं। जब 6 बजे अन्य बन्दियों को बैरक में वापस भेज दिया जाता है तब ये जेल वार्डरों के साथ अक्सर बाहर नजर आते हैं। पुरुष जेल के भीतर महिला जेलों की स्थिति तो और खराब है। कई बार महिला बंदियों के साथ हिंसक घटनाएं नजर आ जाती हैं।
ग्लोबल प्रिज़न ट्रेंड्स 2020 के अनुसार पूरी दुनिया में 19 हजार बच्चे अपनी बंदी मांओं के साथ जेल में रहते हैं। पिछले एक दशक से कुल महिला बंदियों में से करीब 9 प्रतिशत भारत की जेलों मैं अपने बच्चों के साथ रहती हैं। बच्चों वाली बन्दी मांओं के हालात इसलिए ज्यादा खराब होते हैं कि उनके कारण उनके बच्चों का जीवन असन्तुलित हो जाता है। यदि मां को लम्बा समय जेल में रहना पड़ता है तो छह साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए सरकार दूसरी व्यवस्था करती है।
वैसे तो गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए अतिरिक्त पोषक भोजन का प्राविधान जेल मैनुअल में किया गया है लेकिन बहुत कम जेलें ऐसी होंगी जहां जेल मैनुअल का पालन किया जाता हो। कपड़ा व अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए भी जेल मैनुअल में प्राविधान हैं लेकिन शायद ही इस पर कभी अमल किया जाता हो। स्थिति यह है कि कैदियों के भोजन और रखरखाव के लिए आंवटित बजट की न्यूनतम मात्रा भी कैदियों पर खर्च नहीं की जाती।
आर्थिक तौर पर पुरुषों पर निर्भर रहने के कारण महिलाएं स्वयं अपने लिए वकील नहीं कर पाती। यही वजह हैकि खासतौर से गरीब महिलाओं की जमानत जल्दी नहीं हो पाती। यही कारण है कि अधिकतर महिलाओं का समय पर ट्रायल न होने की वजह से अपराध की सजा से अधिक समय जेल में रहना पड़ता है।
वर्ष 2019 के रिकार्ड के अनुसार 31 दिसम्बर 2019 के अन्त तक भारतीय जेलों में कुल 19 हजार 913 महिला बन्दियां थीं। जिनमें से केवल 18.3 प्रतिशत (3,652) महिलाएं, महिला जेलों में बन्द हैं जबकि 81.7 प्रतिशत (16,261) पुरुष जेलों के भीतर मौजूद महिला बैरकों में बन्द हैं। वर्ष 2019 के अपराध रिकार्ड के अनुसार जेलों में महिलाओं की संख्या क्षमता से 56.09 प्रतिशत अधिक है। यदि केवल महिला जेलों की बात करें तो उनमें भी केवल 6हजार 511 महिला बन्दियों को रखने की क्षमता है लेकिन 3652 महिला कैदी रहती हैं। पुरुष जेलों के भीतर महिला जेल में यह आंकड़ा 76.7 प्रतिशत है। यदि देश भर के राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों की तुलना की जाए तो जेलों में रहने वाली सबसे अधिक महिला बन्दियों की भीड़ 170.13 प्रतिशत उत्तराखण्ड में दर्ज की गयी है। उसके बाद उत्तरप्रदेश जहां महिलाओं की भीड़ का प्रतिशत 138.38 है। छत्तीसगढ़ में यह संख्या 136.06 प्रतिशत है। महिला बन्दियों का अनुपात अधिक होने का एक कारण यह भी है कि इन राज्यों में महिला जेल नहीं है।
महाराष्ट्र में यह प्रतिशत 120.24 है यहां पर महज एक महिला जेल है। वर्ष 2014 से वर्ष 2019 में महिला बन्दियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है। 2014 में कुल बन्दियों की संख्या 4लाख 18 हजार 536 थी तो 2019 में यह संख्या 4 लाख 78 हजार 600 हो गयी, यानी इस दौरान 14.4 प्रतिशत बन्दी बढ़े हैं जबकि इस दौरान जेलों की सख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। वर्ष 2014 में पूरे देश में कुल 1387 जेलें थीं, वहीं 2019 में यह संख्या कम होकर 1350 हो गयी है। यानी कि 37 जेलें कम कर दी गयी हैं। महिला जेल में बन्दियों की संख्या में भी 21.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। लगभग 11.0 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है।देश भर में 1350 जेलों में महिला जेल महज 31 हैं। जिसमें से 15 राज्यों और केन्द्रशासित राज्यों में हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार महिलाओं की मात्र एक खुली जेल 2010 में पूणे के यरवदा में बनायी गयी थी जबकि पुरुषों की खुली जेल 1953 में ही बना दी गयी थी। सबसे अधिक 7 महिला जेल राजस्थान में हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि महिला बन्दियों के मानवाधिकारों पर नये सिरे से विचार-विमर्श की आवश्यकता है। जब पूरी दुनिया में महिला मुद्दों की बात की जा रही है तो आज पहले से ज्यादा इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि महिला बन्दियों के हितों की सुरक्षा के साथ ही पुलिस प्रशासन, जेल प्रशासन और अदालतों में लैंगिक भेदभाव को चिन्हित किया जाये और यहां मौजूद कर्मचारियों को इसके प्रति संवेदनशील बनाया जाये। इसके साथ ही अदालतों की लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया को भी सरल और त्वरित किया जाना चाहिए। अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे जेल नियमों में बदलाव करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है।
लेखिकाः-चित्रगुप्त एवं चन्द्रकला