आंधी आइल, पानी आइल, गिर गईल ओला।
पहिले लागत रहे गल्ला, एही साल नाहीं भरत बाटे झोला।।
सईंयां केईसे पिसी चइत में चटनियाँ,
कोरोनवा क डर से घरवे में टुटता खटोला।।
जवना मौसम हो जाव तोहार करिया शरीरिया।
ओही मौसम भुला गईल तू हीं गईल बजरिया।।
चटनी त भुला गईल, खनवो ना घोटात बा।
केकरा से बताईं दरदिया, सब केहू इहां चोटात बा।।
कहवाँ से चर्बी चढ़ी, चनवा त खा गईल ढोला।
आंधी आइल, पानी आइल, गिर गइल ओला।।
हर साल लागत रहे गल्ला, एही साल नाहीं भरत बाटे झोला।।
– उपेंद्र नाथ राय ‘घुमन्तु’
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हकीकत को झकझोरती हुई दिल में उतरती हुई कविता..जय हिंद दद्दू।.