पंकज चतुर्वेदी
कभी मैंने मशहूर शाइर शहरयार का एक इंटरव्यू लिया था। उसमें उन्होंने दो बातें ऐसी बताईं, जिन्हें कभी भूल नहीं पाता हूँ। एक यह कि वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर थे। एक दिन कुलपति महोदय ने उन्हें बुलवा भेजा। जब शहरयार पहुँचे, तो औपचारिक दुआ-सलाम के बाद कुलपति ने उनसे कहा : ‘आप पीएचडी कर लीजिए!’
शहरयार ने पूछा : ‘क्यों?’
उन्होंने कहा : ‘मैं प्रोफ़ेसर के तौर पर आपका प्रमोशन करना चाहता हूँ और यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का नियम है कि प्रोफ़ेसर को पीएचडी होना चाहिए।’
वह सच्चे कवि थे, कविता के अलावा किसी काम में मन नहीं लगता था। लिहाज़ा यह जवाब देकर लौट आए : ‘आप मुझे प्रोफ़ेसर मत बनाइए, क्योंकि पीएचडी मैं नहीं कर पाऊँगा।’
कुछ दिनों बाद एक पत्र उन्हें मिला, जिसमें लिखा था कि उनकी उम्दा शाइरी के मद्देनज़र वह कुलपति जी के विशेषाधिकार से प्रोफ़ेसर बना दिए गए हैं।
दूसरे, शहरयार ने जब ‘उमराव जान’ फ़िल्म के लिए ग़ज़लें लिखीं, तो उन्हें इतनी शोहरत मिली कि उस ज़माने में हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर वह जाते, तो लोग उन्हें पहचान लेते और ‘लाइन’ में नहीं लगने देते।
तब से उनकी ग़ज़लें पढ़ता या सुनता हूँ–ख़ास तौर पर ‘उमराव जान’ की–तो सोचता हूँ कि इतनी मुहब्बत एक शाइर को बेशक नसीब हो सकती है, मगर जब वह नदी की-सी सादगी, संजीदगी, रवानी और कशिश के साथ अवाम से गुफ़्तगू कर पा रहा हो। सबूत के तौर पर पेश है ‘उमराव जान’ में इस्तेमाल की गई शहरयार की एक ग़ज़ल :
‘दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
इस अंजुमन में आप को आना है बार बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए
माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास*
लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए’