अंशुमाली रस्तोगी
कवियों ने युद्ध के बहाने “आपदा में अवसर” तलाश लिया है। भयंकर तरीके से फेसबुक और ट्विटर पर – युद्ध पर – कविताएं लिखा जा रही हैं। आलम ये है कि वे लोग भी कविता के मैदान में कूद पड़े हैं, जो कल तलक अपनी दीवार पर औंधे मुंह लेटे हुए थे। न सिर्फ कविताएं लिखी जा रही हैं बल्कि विदेशी कवियों की कविताओं के अनुवाद भी खूब सामने आ रहे हैं। विदेशी कवियों के नाम इतने कठिन हैं कि मैं यहां लिख भी नहीं पा रहा।
इन दिनों सड़क और सोशल मीडिया पर मौजूद हर कोई या तो युद्ध विश्लेषक बना हुआ है या फिर कवि! ट्विटर पर जाओ या फेसबुक पर आओ, लगता है कि किसी कवि सम्मेलन में आ गए हैं। हर दूसरा व्यक्ति कविता पर हाथ साफ करने में लगा है। मुहल्ले के चार पांच कवियों से जब मैंने पूछा कि “रूस और यूक्रेन लड़ किस मसले पर रहे हैं, तो वे बोले मसाला जो भी रहा हो पर युद्ध किसी समस्या का हल नहीं। इसी पर अभी दो चार कविताएं लिखी हैं, जरा सुनो।” मुहल्ले का मामला था, कविताएं सुननी पड़ीं। कवि इतने से ही खुश दिखे।
युद्ध पर कविताएं लिखने में बाजी मारी है कथित प्रगतिशील जमात ने। ये कोई नहीं बात नहीं। ये जमात पिछले सात साल से या तो सरकार के खिलाफ सिर्फ क्रांतिकारी कविताएं लिख रही है या फिर युद्ध, हिजाब, चुनाव, महिला उत्पीड़न, किसान आंदोलन आदि मसलों पर ट्वीट कर रही है। इस जमात के एकाध लोग बहुत ऊंचे इतिहासकार बन गए हैं और ट्विटर-फेसबुक पर- अपने चमचों के साथ- भक्तों का इतिहास दुरुस्त करते रहते हैं 24×7।
अभी इन्होंने अपने इतिहास की तोप रूस, अमरीका और नाटो पर तान रखी है। दोहरी मेहनत इनके सिर आन पड़ी है। यानी, इतिहास लेखन भी कर रहे हैं। खुद की क्रांतिकारी कविताएं भी लिख रहे हैं। और विदेशी कवियों की कविताओं के अनुवाद भी दे रहे हैं। चेले युद्ध की कविताओं के पोस्टर बनाकर ट्विटर-फेसबुक पर टांग रहे हैं। पूरा आलम इन दिनों क्रांतिकारी कविताओं के बाजार से अटा पड़ा है।
कभी-कभी मुझे पुतिन का ख्याल हो आता है। काश! वे इन क्रांतिकारी कविताओं को पढ़ पाते तो निश्चित ही युद्ध का विचार मन से निकाल देते। और, प्रगतिशील जमात को रूस बुलाकर सम्मानित अवश्य करते।
अभी चार रोज पहले तक देश के समस्त कवि फैज को याद कर रहे थे। फैज की नज्मों से सोशल मीडिया का बाजार फैजमय बना रखा था। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हर कहीं फैज ही फैज नजर आ रहे थे। मगर फैज की पाकिस्तानपरस्ती पर ये प्रगतिशील जमात मौन थी। अब भी मौन है। हमेशा मौन ही रहेगी।
यूक्रेन की बदहाली पर आंसू टपकाने वाली ये वाम प्रगतिशील जमात फिलिस्तीन को भूल गई। क्यूबा को भूल गई। भूल इसलिए गई क्योंकि उन पर कविताएं लिखकर इसे सहानुभूति का बाजार नहीं मिलेगा।
देखिए जनाब, कविताबाजी आज के दौर का सबसे “प्रॉफिट” देने वाला बाजार है। ये कवि किसी मुल्क या आवाम को जगाने या जोश भरने के लिए कविताएं थोड़े ही न लिखते हैं। ये लिखते हैं ताकि बाजार में कविता के असर को कायम रख सकें। ये लिखते हैं ताकि इनके तथाकथित चेले इनकी कविताओं के पोस्टर बनाकर सोशल मीडिया पर आम कर सकें। ये लिखते हैं ताकि विदेशी पत्रिकाओं में अनुवादित हो सकें। ये लिखते हैं ताकि इनके यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइबर मिलें और कमाई हो।
धैर्य रखिए, युद्ध पर अभी और भी क्रांतिकारी कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। युद्ध का माहौल अभी गरम है। कविताओं का बाजार भी तब तक गर्म ही रहेगा। बाजार में खड़ा कवि युद्ध पर अभी जितनी क्रांतिकारी कविताएं लिख लेगा, भविष्य में इतना ही ऊंचा पुरस्कार भी पाएगा। इन दिनों युद्ध और कविता का बाजार साथ-साथ चल रहा है।