(ग़दर 1857: आजादी का अमृत महोत्सव)
लखनऊ, 15 अगस्त 2022: तीस जून 1857 का वह दिन, जब चिनहट के पास अंग्रेजों की सेना के सामने भारतीय आंदोलनकारी आकर डट गये। लाख कोशिशों के बावजूद आंदोलनकारियों को गोरों की सेना पीछे हटा नहीं सकी। जयकारों की गूंज के साथ ही भारतीय जवान आगे बढ़ते गये और गोरे रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए मजबूर हो गये।
दस मई 1857 को मेरठ से उठी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी 30 मई को लखनऊ तक पहुंच गयी थी। लखनऊ में भी ज्वाला धधकने लगी और लोगों ने सड़कों पर विद्रोह शुरू कर दिया। अन्य स्थानों की तरह ही यहां भी अंग्रेजों के बंगलों पर आजादी के दीवानों ने प्रहार किया। इसके बाद बौखलाकर अंग्रेज कमांडर सर हेनरी लारेंस ने अपनी सेना के साथ निकलकर विद्रोह को दबाने की कोशिश की। इस कोशिश में चिनहट के पास विद्रोहियों ने अंग्रेजों की सेना को रोक दिया और उनको घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। अंग्रेज गोमती किनारे स्थित रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए मजबूर हो गये। भारतीय सेनानियों की जीत हुई और खुशी से झूम उठे। यह आजादी 86 दिनों तक चलती रही।
शहर पर आंदोलनकारियों का कब्जा मिलने के बाद अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह के नाबालिग पुत्र विरजिस को लखनऊ का वली घोषित किया गया। इसके बाद उनकी माता बेगम हजरत महल ने सत्ता को संभालना शुरू किया। हिन्दू और मुसलमान विभिन्न पदों पर बैठाये गये। शहर में जश्न का माहौल बना रहा। अंग्रेजों को आसिफद्दौला द्वारा बनवाये गये रेजिडेंसी में ही कैद कर दिया गया। अंग्रेज 86 दिनों तक उसी रेजिंडेसी में कैद रहे।
इस बीच पश्चिम में विद्रोह की चिंगारी तेज होने के कारण दिल्ली से भी अंग्रेजों की सेना नहीं भेजी जा सकती थी। इस कारण अंग्रेजों ने घोषणा की कि जो भी आंदोलन कारी आंदोलन से विरत हो जाएगा, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसका भी असर सेनानियों पर नहीं पड़ा। इस बीच संघर्ष के दौरान क्रांतिकारियों ने अंग्रेज कमांडर सर हेनरी लॉरेंस को मौत की नींद सुला दिया था।
गोमती किनारे स्थित रेजिडेंसी में आज भी गोला-बारूद के निशान संघर्ष की दास्तां को बयां करते हैं। वह आज भी बता रही हैं कि अंग्रेजों के जुल्म के आगे भी जोरदार संग्राम हुआ और भारत के क्रांतिकारी डटे रहे। लोगों ने रेजिडेंसी में ही अंग्रेजों को कैद रहने के लिए विवश कर दिया। बाद के दिनों में अंग्रेजों ने गोले बरसाकर भारतीय जवानों को खदेड़ दिया और कुछ को इसी रेजिडेंसी में दफना दिया गया।
सिकंदर के बाग में भारतीय सैनिकों ने शरण ली थी। वहां भी जब अंग्रेजों ने घेराबंदी की तो भारतीय सैनिक टूट पड़े और तीन हजार की संख्या में सैनिकों ने गोरों के तोपों का सामना किया। लड़ाई भीषण हुई, लेकिन 16 नवंबर 1857 को भारतीय सेना को हार का सामना करना पड़ा। दो हजार से अधिक सिपाहियों को गोरों ने मार डाला था। वर्षों बाद तक बाग से तोप, गोला-बारूद, तलवारें, ढाल और हथियारों के टूटे हिस्से मिलते रहे, जिन्हें अब संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस घमासान के दौरान बाग की दीवारों पर पड़े निशान इस ऐतिहासिक घटना की गवाही देते हैं।
इस लड़ाई में वीरांगना ऊदा देवी महत्वपूर्ण भूमिका में रहीं। वे पूरी लड़ाई में भारतीयों की मदद आगे बढ़कर करती रहीं। उन्होंने पुरुषों के वस्त्र धारण कर रखे थे। वे बाग के ऊंचे पेड़ों पर चढ़ जातीं और अंग्रेजों की सेना पर गोले बरसाती रहती थीं। बाग में आज भी ऊदा देवी की प्रतिमा 1857 की क्रांति की याद को ताजा कर रही है। 1857 के आंदोलन के संबंध में इतिहासकार डॉ. आनंद शंकर सिंह कहते हैं कि यह वामपंथी विचारकों ने सोच-समझकर इसे विद्रोह करार दिया, जबकि हकीकत में यह स्वतंत्रता का प्रथम आंदोलन था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आंदोलन की चिंगारी तेज थी। यदि इसका नेतृत्वकर्ता कोई सुभाष चंद्र बोस जैसा व्यक्ति रहता तो आजादी के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं करना पड़ता।