80-90 के दशक का वह मस्त दौर
वो नीली चिट्ठियां कहां खो गईं
जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे
कुशलता की कामना से शुरू होते थे
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थे
और बीच में लिखी होती थी जिंदगी
प्रियतमा का विछोह,
पत्नी की विवशताएं
नन्हे के आने की खबर,
मां की तबियत का दर्द
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के खराब होने की वजह
कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आंखों से आंसू बहाती
मां की आस थीं ये चिट्ठियां
पिता का संबल थीं ये चिट्ठियां
बच्चों का भविष्य थी ये चिट्ठियां
और गांव का गौरव थीं ये चिट्ठियां
अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता है
और अक्सर ही दिल तोड़ता है
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ दो मिनट में डिलीट होता है
सब कुछ सिमट गया छह इंच में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में
जज्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में
और इंसान सिमट गए पैसों में…!
- आलोक दीक्षित