अजीत सिंह
एक मई को मजदूरों को सम्मान देने के लिए मजदूर दिवस के रूप मनाएंगे और पुन: भूल जाएंगे। भारत में इसे मनाने की शुरूआत तो एक मई 1923 को हो गयी थी। मजदूरों के हित में तमाम तरह के कानून बने, लेकिन वह सब मजदूरों के लिए नाकाफी है। यह वैसे ही है, जैसे दहेज उत्पीड़न के तमाम कानूनों के बावजूद दहेज प्रथा पर रोक नहीं लगाया जा सकी। अब सरकार और समाज दोनों को मिलकर इस पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर मजदूरों की मूल परेशानी क्या है। उनकी समस्या को दूर करने के लिए किन उपायों पर विचार करना चाहिए।
मजदूरों के उत्थान के लिए यदि सरकार की योजनाओं और उनकी सुरक्षा के लिए बने कानून पर विचार करें तो मजदूर वर्ग के जीवन से लेकर इहलोक से विदा होने तक के लिए सरकार ने तमाम योजनाएं चला रखी हैं। यदि सभी योजनाओं को सही ढंग से लागू कर दिया जाय तो मजदूर वर्ग की अधिकांश परेशानियां दूर हो जाएं, लेकिन परेशानी यह है कि इन योजनाओं के प्रति मजदूरों को कोई जागरूक करने वाला नहीं है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि जिसके पास खाने के इंतजाम करने अलावा कोई समय नहीं है। वह घर में टीवी कैसे रख सकता है।
खेतों में पसीना बहाकर भूख के आगे जो अक्षरों के ज्ञान तक पहुंचा ही नहीं, वह अखबार में अपनी योजनाओं की जानकारी कैसे ले सकेगा। हकीकत तो यह है कि जो अधिकारी या कर्मचारी उन तक योजनाओं को पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है, वह खुद ही सारी योजनाओं की पूरी जानकारी नहीं रखता। जो जानकार है वह मलिन बस्तियों में जाना नहीं चाहता। यहां तो सिर्फ कागजों की खानापूर्ति होती है।
हमें जरूरत सिर्फ इस बात की है कि उनके लिए जो भी योजनाएं लागू हैं, वे सही व्यक्ति तक पहुंचे। इसके लिए सिर्फ कानून से काम नहीं चलने वाला। इसके लिए हमें संस्कृति को बदलनी होगी। हमें बड़े लोगों के स्वभाव को बदलने के लिए जागरूकता लाने की जरूरत है। हम इस बात को भी समझाने की जरूरत है कि अमीर और गरीब नदी के दो किनारे नहीं हैं। दोनो ही एक दूसरे के पूरक हैं। यदि कोई गरीब नहीं है तो अमीर की कल्पना नहीं की जा सकती। आज जो भी अमीर हैं, बड़े व्यापारी हैं, उनकी ऊंची इमारत गरीबों के पसीने से बनी है।

जहां तक मजदूर वर्ग के स्वभाव का सवाल है। वह पैसे से ज्यादा प्यार का भूखा होता है। इसका एक उदाहरण उप्र के वर्तमान नगर विकास और ऊर्जा मंत्री एके शर्मा ने पेश किया है। वे अधिकांशत: सड़कों पर सफाई करने वाले मजदूरों, सफाई कर्मियों के बीच जाकर सुबह ही खड़े हो जाते और उनका हौसला आफजाई करते हैं। इसका नतीजा अधिकांश जगहों पर दिखने लगा है।
अब जरा बात कर लें मजदूर दिवस के इतिहास की। एक मई 1886 को अमेरिका में आंदोलन की शुरूआत हुई थी। इस आंदोलन में अमेरिका के मजदूर सड़कों पर आ गए थे और वो अपने हक के लिए आवाज बुलंद करने लगे। इस तरह के आंदोलन का कारण था काम के घंटे क्योंकि मजदूरों से दिन के 15-15 घंटे काम लिया जाता था। आंदोलन के बीच में मजदूरों पर पुलिस ने गोली चला दी और कई मजदूरों की जान चली गई। वहीं 100 से ज्यादा श्रमिक घायल हो गए। इस आंदोलन के तीन साल बाद 1889 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन की बैठक हुई। जिसमें तय हुआ कि हर मजदूर से केवल दिन के 8 घंटे ही काम लिया जाएगा।
अमेरिका में भले ही 1 मई 1889 को मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव आ गया हो। लेकिन भारत में यह 34 साल बाद आया। भारत में 1 मई 1923 को चेन्नई से मजदूर दिवस मनाने की शुरूआत हुई। लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान की अध्यक्षता में ये फैसला किया गया। इस बैठक को कई सारे संगंठन और सोशल पार्टी का समर्थन मिला। जो मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों और शोषण के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। इसका नेतृत्व वामपंथी कर रहे थे।
अब मजदूर वर्ग के सम्मान में हर साल एक मई को देश-दुनिया में मजदूर दिवस मनाया जाता है। मजदूरों और श्रमिकों को सम्मान देने के उद्देश्य से हर साल एक मई का दिन इनको समर्पित होता है। इसे लेबर डे, श्रमिक दिवस, मजदूर दिवस, मई डे के नाम से जाना जाता है। मजदूर दिवस का दिन ना केवल श्रमिकों को सम्मान देने के लिए होता है, बल्कि इस दिन मजदूरों के हक के प्रति आवाज भी उठाई जाती है, जिससे कि उन्हें समान अधिकार मिल सके।