अंशुमाली रस्तोगी
हिंदी का लेखक अभी भी बाजार के गणित को समझ नहीं पाया है। यही कारण है कि कभी वो रॉयल्टी का रोना लेकर बैठ जाता है कभी किताबें न बिकने का कभी पाठक न मिलने का। जबकि बाजार में ये सब मौजूद हैं। बस लेखक को थोड़ा ‘प्रोफेशनल’ होने की जरूरत है।
रॉयल्टी न मिलने पर टसूए टपकाने वाले लेखक अपने प्रकाशक से- किन्हीं संकोचवश- हिसाब मांगते ही नहीं। कितनी किताबें बिकीं, कितनी नहीं। अगर नहीं बिक रहीं तो क्या कारण है। कभी पूछते नहीं। प्रकाशक ने जो दे दिया, अच्छे बच्चे की तरह लेखक ने जेब में धर लिया। यही संकोच लेखक के लिए उमरभर का नासूर बन जाता है। प्रकाशक लेखक के दम पर फुलटू मजे लूटता है।
अरे भई, आप लेखक हैं लेखक; कोई आलू-टमाटर की सब्जी नहीं कि पानी या नमक कम हो फिर भी चलेगा। कब तक लेखन के क्षेत्र में संत या फकीर बने रहेंगे? लिखकर अगर संत ही बनने का इरादा था तो लेखन की लाइन में न आकर हरिद्वार या काशी का रास्ता पकड़ते।
किताबें न बिकने का रोना भी न रोएं। किताबें बिक रही हैं और खूब बिक रही हैं। जरा एक दफा अंगरेजी के लेखकों की किताबों की बिक्री का आंकड़ा देखिए लीजिए। किताब के न बिकने का एक ही कारण हो सकता है कि लेखक ने उसमें लिखा क्या है? बाजार के हिसाब से लिखा है या ‘स्वांत: सुखाए’! देखिए जनाब, ‘स्वांत: सुखाए’ वाले दिन अब लद चुके हैं। आजकल लेखन, लेखक, विचार और कंटेंट पर पूरा कब्जा बाजार का है। जो लेखक खुद को बाजार के बीच खपा पा रहा है, वही हिट है, वही सेलेब राइटर भी। आलम ये है कि भावनात्मक लेखन भी बाजार के टेस्ट के हिसाब से ही चलता और बिकता है। तभी वो पाठक दिलवा पाएगा, नहीं तो कूड़ा मात्र है।
बाजार में पाठक भी खूब हैं। और पढ़ा भी खूब जा रहा है। पढ़ने का तरीका बस अब डिजिटल हो गया है। यही समय और बाजार की मांग भी है। डिजिटल कंटेंट में जब तक बाजार का रस और रंगीनियत न हो, पढ़ने में मजा नहीं आता।
तो, लब्बोलुआब ये है कि लेखन प्रेमचंद, निराला, निर्मल वर्मा, अज्ञेय आदि से आगे बहुत आगे निकल चुका है। लेखन के बाजार में जमे रहने के लिए, भावनाएं नहीं धांसू कंटेंट परोसिए। नहीं तो उमर भर रॉयल्टी और किताब न बिक पाने का रोना रोते रहेंगे। समझिए कि आप लेखक नहीं एक प्रोडेक्ट हैं। जिसे अपने माल को बाजार में कैसे भी करके बेचना है। माल बिकेगा पैसा भी तभी आएगा। क्यों… है न।