ग़ज़ल
इतनी पर्दादारी है।
तो काहे की यारी है।
तेरी जो बीमारी है ।
वो तेरी ख़ुद्दारी है ।
मुँह में तो तिनका दाबे ,
हाथों में चिंगारी है ।
सागर खारा सुनते थे ,
अब तो नदिया खारी है ।
उसके जलवे क्या कहने !
शायद वो दरबारी है ।
तू भी तो अपना कह दे ,
यूँ तो दुनिया सारी है ।
काँटे बोए आँगन तक ,
तू कहता फुलवारी है ।
अब तो जीते जी होती ,
मरने की तैयारी है ।
भावुक उसके महलों से ,
तेरी कुटिया भारी है ।
- कमल किशोर ‘ भावुक ‘ , लखनऊ