जन्म दिवस विशेष: 12 जनवरी,1863
स्वामी विविकनन्द जी भारत की महानता का उद्घोष करने के लिए आये थे। यह कार्य उन्होंने पूरा किया। इसके बाद अल्पायु में ही उन्होंने दैहिक काया का त्याग कर दिया। दुनिया को भारत की शाश्वत और मानवतावादी संस्कृति का ज्ञान दिया। विश्व ने विस्मय के साथ उनको सुना।
उन्होंने पश्चिमी देशों को बता दिया कि भारत राजनीतिक रूप से परतंत्र हो सकता है, लेकिन विश्व गुरु को सांस्कृतिक रूप से कभी गुलाम नहीं बनाया जा सकता। विश्व और मानवता का कल्याण भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ही हो सकता है। विवेकानंद जी सच्चे महापुरुष थे। उनका कोई आलोचक ही नहीं हुआ। उन्होंने भारतीय संस्कृति की ध्वज पताका विश्व मे फहराई।
स्वामी विवेकानन्द ने देश व दुनिया में लोगों को नई सोच और नई दिशा दी। उन्होंने देशवासियों में स्वाभिमान व राष्ट्रीय चेतना का संचार किया तथा भारतीय वेदांत दर्शन और अध्यात्म पर सारे विश्व के सामने अपने विचार रखे। वह ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद में जो व्याख्यान दिया उससे पूरे विश्व में भारत एवं भारतीयता की एक छवि बनी थी। उस समय उनकी अवस्था मात्र तीस वर्ष थी। भारत उस समय गुलाम था। विश्व में भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अच्छे होटलों में भारतीयों का प्रवेश वर्जित था।
स्वामी विवेकानन्द जी को शिकागो में बोलने के लिए मात्र तीन मिनट का समय दिया गया था। लेकिन उनके प्रारंभिक संबोधन में ही भारतीय संस्कृति का व्यापक स्वरूप निखर कर सामने आ गया। विवश होकर उनका समय बढ़ाया गया। पश्चिमी संस्कृति में तो समाज में लेडीज व जेंटलमेन का ही संबोधन दिया जाता है। उनके स्वाभिमान और अभिव्यक्ति के कारण आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण हुआ।
गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि यदि भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानन्द को पढ़िये। स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान और शब्दों के आधार पर सबका सम्मान प्राप्त किया। धार्मिक एवं सांस्कृतिक राजदूत के रूप में जब उन्होंने शिकागो में अपनी बात रखी तो पूरा माहौल बदल गया। भाईयों बहनों के सम्बोधन से लेकर उन्होंने भारतीय संस्कृति की अवधारणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात कहकर भारत को ऐसे देश में नई पहचान दिलाई, जहाँ भारतीय लोगों का सम्मान नहीं होता था।
स्वामी विवेकानन्द ने पूरा विश्व एक परिवार है कहकर यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों को समाहित करने की क्षमता है। संसद के द्वार पर लिखा यह श्लोक आज भी संसद में प्रवेश करने वालों को प्रेरणा देता है कि बिना भेदभाव के काम करें तथा पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखें। स्वामी विवेकानन्द ने अल्प समय में पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान बनाई। पश्चिमी सभ्यता के लोग भारतीय उदारता की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें श्लोक की भावना से परिचित कराया।
अय निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥
अर्थात यह मेरा और यह पराया है, ऐसा विचार भी तुच्छ बुद्धि वालों का होता है। श्रेष्ट जन तो सारे संसार को अपना कुटुम्ब मानते हैं। यह श्लोक संसद के मुख्य द्वार पर अंकित है। इसके अलावा स्वामी विवेकानन्द को कठोपनिषद का यह सूक्त बहुत प्रिय था-
उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
भावार्थ यह कि उठो जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।। लखनऊ राजभवन में स्थापित प्रतिमा के नीचे यह वाक्य अंकित है। स्वामी विवेकानन्द भारत के लोगों को जगाना चाहते थे कि वे अपने प्राचीन गौरव को समझें।
मेरठ और हाथरस में भी स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति लगाने का सुझाव दिया गया। मेरठ में विवेकानन्द किराए के मकान में अखण्डानन्द के साथ रहते थे। पुस्तकालय से प्रतिदिन किताब लाते फिर लौटा देते थे। पांच दिन तक यह क्रम चला। एक दिन लाइब्रेरियन ने पूछ लिया कि किताबों का करते क्या हो। स्वामी विवेकानन्द ने सभी किताबों की विस्तृत जानकारी दे दी।
हाथरस में स्टेशन की बेंच पर स्वामी विवेकानन्द बैठे थे। स्टेशन मास्टर उन्हें घर ले गए। वह तीन दिन से ज्यादा रुकते नहीं थे। स्टेशन मास्टर इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। स्वामी जी ने उन्हें कुलियों के यहां से भिक्षा लाने को कहा। आगे चलकर वह स्टेशन मास्टर स्वामी सदानन्द बने।
इस प्रकार उत्तर प्रदेश के मेरठ और हाथरस से स्वामी विवेकानन्द की स्मृति जुड़ी है। लखनऊ राजभवन में स्थापित स्प्रवामी विवेकानंद की प्रतिमा लोगों को प्रेरणा देगी। यह भारत के किसी राजभवन में स्थापित होने वाली स्वामी विवेकानन्द की पहली प्रतिमा है। यह एक अच्छी शुरुआत है, जिसका अनुकरण अन्य राजभवनों को भी करना चाहिए। – डॉ दिलीप अग्निहोत्री