दयानन्द पांडेय
वाद-विवाद-संवाद सर्वदा से ही साहित्य की बड़ी ताकत है। विवाद दुनिया भर की भाषाओँ के साहित्य और साहित्यकारों में होते हैं । ख़ूब राजनीति भी । लेकिन उन का एक साहित्यिक उत्कर्ष भी होता है । लेकिन हिंदी में तो इन दिनों पतन की पराकाष्ठा है । हाल के दिनों में दो ही तरह के विवाद अभी तक देखने को मिलते आए हैं । कि कौन कितना औरतबाज है, कौन कितनी छिनार है । कौन भाजपाई है, कौन वामपंथी। कौन कितना कट्टरपंथी, कौन कितना उदार। अब थोड़ा जय भीम, जय मीम की नफ़रत भी जुड़ गई है ।
पुरस्कारों की तल्खी, नफ़रत और फ्रस्ट्रेशन भी बदबू मारती मिलती रहती है। राजनीति के आगे चलने वाली साहित्य की मशाल अब वामपंथ की मजदूरिन बन कर राजनीति का मल साफ़ करने का पोतड़ा बन चुकी है । खैर, विभूति नारायण राय ने वर्तमान साहित्य में जब राजेंद्र यादव का एक अश्लील लेख होना, सोना एक दुश्मन के साथ, छापा तो जब बचाव में कुछ नहीं मिला तो कहने लगे कि मैं तो राजेंद्र यादव को नंगा करना चाहता था। बतौर संपादक अजब मासूमियत थी यह भी विभूति की । फिर जब मैत्रेयी पुष्पा और गगन गिल को इंगित करते हुए लेखिकाओं को विभूति ने छिनार घोषित किया तब भी यही मासूमियत दिखाई। लेकिन दिलचस्प यह कि शहर-दर-शहर तमाम स्त्रियां ही विभूति के बचाव में तलवार ले कर खड़ी मिलीं। तो भी रवींद्र कालिया को इस दोस्त की नंगई वाली दोस्ती निभाने के लिए खेद-प्रकाश छापना पड़ा था, नया ज्ञानोदय में । लेकिन हासिल क्या हुआ ? मैत्रेयी पुष्पा जो राजेंद्र यादव की ताकत पर लेख पर लेख लिख-लिख कर विभूति नारायण राय की लंपटई उदघाटित करती रही थीं उन्हीं विभूति नारायण राय के साथ एक दिन पाखी का मंच शेयर कर बतकही कर रही थीं ।
ऐसे तमाम विवाद हैं हिंदी में जो पानी के बुलबुले की तरह किसी गटर में बह जाया करते हैं । था कभी हिंदी में भी विवाद का उत्कर्ष । जब निराला हुंकार भरते थे । जब आलोचना में रामविलास शर्मा और डाक्टर नागेंद्र भिड़ते थे । रामविलास शर्मा जब नामवर को चिकोटा , चिढ़ाया करते थे या नामवर रामविलास शर्मा की शव साधना करते थे । फिर नामवर द्वारा किए गए रामविलास शर्मा की शव साधना की पड़ताल विश्वनाथ प्रसाद तिवारी करते थे और नामवर निरुत्तर रह जाते थे । यही विश्वनाथ त्रिपाठी , रामविलास शर्मा से टकराते थे। कभी हजारी प्रसाद द्विवेदी व्योमकेश बन कर लिखा करते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी जब लोगों को आलोचना की राह दिखाते थे। प्रेमचंद जब जयशंकर प्रसाद को स्नेहवत लताड़ते हुए कंकाल जैसा कालजयी लिखवा लेते थे। लेकिन अब न वह संपादक रहे , न लेखक और आलोचक । न वह सार्थक वाद-विवाद-संवाद। बच्चन जी की रुबाई पंक्ति में जो कहूं कि , अब न रहे वे पीने वाले , अब न रही वह मधुशाला। अब तो छियासी वर्ष का एक वृद्ध लेखक और दो साल की दुधमुंही बच्ची इन के शिकार का सबब है। कि शिकार , विवाद और सौंदर्य भी शर्मा जाए।
अज्ञेय को बहुत धिक्कारा और ख़ारिज किया वामपंथी साथियों ने । अशोक वाजपेयी जैसों ने भी । लेकिन अज्ञेय लोगों की मूर्खताओं और धूर्तताओं से विचलित नहीं हुए । नतीज़ा सामने है कि अज्ञेय आज की तारीख में हिंदी में इकलौते हैं जो लेखन में अंतरराष्ट्रीय कद रखते हैं। तो दोस्तों किसी विवाद को व्यक्तिगत और स्तरहीन नहीं बनाएं। साहित्य को साहित्य ही रहने दें, पत्रिका को पत्रिका ही रहने दें, न्यूज चैनल नहीं बनाएं। साहित्य टी आर पी का तलबगार नहीं होता। नफ़रत का सौदागर भी नहीं है साहित्य। साहित्य सेतु है, समाज को जोड़ने का, तोड़ने का नहीं। मन में मिठास घोलिए , जहर और नफ़रत नहीं । एजेंडा नफ़रत और मतभेद का अखाड़ा कहीं और खोजिए । बलात्कार के छ्लात्कार का स्वांग ही अब शेष रह गया है ? यह तो हद है !
आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ की याद आती है। आदि शंकराचार्य उन दिनों शास्त्रार्थ विजय भ्रमण पर थे। शास्त्रार्थ के लिए वह कुमारिल भट्ट के पास पहुंचे। कुमारिल भट्ट उन दिनों गुरुद्रोह की यातना में खुद को धान की भूसी में जला रहे थे। आदि शंकराचार्य ने उन से कहा कि आप को मैं योग से ठीक कर दूंगा। आप शास्त्रार्थ के लिए तैयार होइए। कुमारिल भट्ट ने कहा कि अब यह संभव नहीं। आप मेरे शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ कर लें। हार-जीत का जो भी निर्णय होगा, मुझे स्वीकार होगा। अब शास्त्रार्थ शुरू हुआ। निर्णायक तय हुईं मंडन मिश्र की पत्नी भारती।
शास्त्रार्थ शुरू हुआ। दिन पर दिन बीतते गए। शास्त्रार्थ नहीं। इस बीच भारती को किसी कार्य से कहीं जाना पड़ा। जाने के पहले भारती ने आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र को ताज़े फूलों की एक-एक माला पहना कर कहा कि आप लोग शास्त्रार्थ जारी रखिए। मैं लौट कर निर्णय सुना दूंगी। अपने समय से लौट कर भारती ने निर्णय सुनाते हुए अपने पति मंडन मिश्र को पराजित घोषित किया। तर्क दिया कि मंडन मिश्र के गले की माला के फूल शास्त्रार्थ के दौरान क्रोध के ताप में सूख गए थे। पराजित होने के भय से वह क्रोध में आ गए थे। जब कि आदि शंकराचार्य के गले की माला के फूल ताजे थे। अलग बात है कि भारती ने कहा कि अभी आप आधा जीते हैं। मैं मंडन मिश्र की अर्धांगिनी हूं। आधी जीत मेरे साथ शास्त्रार्थ कर जीतनी होगी। शास्त्रार्थ शुरू हुआ। जब भारती भी हारने लगीं तो उन्हों ने संभोग के बाबत प्रश्न पूछ लिया।
शंकराचार्य प्रश्न का मतलब और उसकी गहराई समझ गए। यदि वे इसी हालत में और इसी शरीर से भारती के प्रश्न का उत्तर देते तो उनका संन्यास धर्म खंडित हो जाता । क्यों कि संन्यासी को बाल ब्रह्मचारी को संभोग का ज्ञान होना असंभव ही था। उन्हों ने इस का जवाब देने के लिए छ महीने का समय मांगा। फिर एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर संभोग का अनुभव लिया। और जवाब दिया। पराजित हो कर मंडन मिश्र और उन की पत्नी आदि शंकराचार्य के शिष्य बन गए। बहुत लंबी कथा है यह ।
संयोग देखिए कि इस पाखी के टी आर पी शास्त्रार्थ में भी आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के गले की माला के फूल नहीं सूखे हैं। असल में होते हैं कुछ लोग कि जिन पर अगर आप कीचड़ फेंकें तो पलट कर वह कीचड़ आप के ही चेहरे पर आ गिरती है । आदरणीय आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी ऐसे ही ऋषि व्यक्तित्व हैं । वह कहते हैं न , आकाश पर थूकना। उन पर थूकने वालों ने यही चरितार्थ कर दिया है । संयोग यह कि आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के चुने हुए शिष्यों में हैं । दुर्भाग्य यह कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नातिन अल्पना मिश्र भी इस कीचड़ कार्यक्रम में कंधे से कंधा मिला कर उपस्थित दिख रही हैं । हिंदी में विवाद पहले भी बहुत हुए हैं , होते रहेंगे लेकिन हिंदी विवाद की हीनता और छुद्रता का यह स्वर्णकाल है । धिक्कार है इस हिंदी विवाद की हीनता और छुद्रता के स्वर्णकाल को । मज़रूह सुल्तानपुरी के एक गीत का मिसरा याद आ रहा है :
मार लो साथी जाने न पाए !
खैर , अब तो खबर है कि अपने और पाखी के सारे पंख नुचवा कर प्रेम भारद्वाज ने ऋषि तुल्य आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के घर जा कर उन से माफ़ी मांग ली है । विश्वनाथ जी ने बताया है कि शुभेच्छुओं के दबाव को देखते हुए पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज मेरे पास आए खेद प्रकट किए और 15 मिनट मुंह लटकाये बैठे रहे। मैं बहुत बात करने की अवस्था में नहीं था। और वह चले गए। विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस विवाद को यहीं समाप्त करने को कहा है।
सोचिए कि विश्वनाथ जी इस समय दामाद के शोक में डूबे हुए हैं , बेटी को उन्हें संभालना है , खुद को संभालना है और हमारा हिंदी का निकृष्ट समाज बिना कुछ जाने, समझे उन पर निरंतर चढ़ाई किए जा रहा था । भला यह लेखकों का समाज है , लेखकों का कृत्य ऐसा ही होता है ! यह तो गुंडों , मवालियों का समाज है । इस हिंसक समाज से तौबा ! विश्वनाथ जी ने क्या-क्या खोया है , कैसे-कैसे घाव दिए हैं इस अराजक हिंदी समाज ने कि मत पूछिए। कुछ लोगों ने तो उन को ब्राह्मण बता कर भी गाली देने का आनंद लिया है । तो कुछ ब्राह्मणों ने प्रगतिशीलता का मुखौटा लगा कर विश्वनाथ जी को निरंतर गरियाया। इन मूर्खों और धूर्तों को जान लेना चाहिए कि विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे निष्कलुक, सहृदय और अध्ययनशील लोग किसी समाज को बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। उन को मान देना, खुद को सम्मान देना होता है। तुलसी और मीरा पर विश्वनाथ जी की लिखी पुस्तकें जिस ने भी पढ़ी होंगी, वह विश्वनाथ त्रिपाठी को सर्वदा सलाम ही करेगा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा पर उन का लिखा पढ़ कर लोग साहित्य का सलीक़ा सीखते रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और फ़िराक पर लिखे उन के संस्मरण हमारी धरोहर हैं। अपने गांव पर लिखा उन का संस्मरण अप्रतिम है। हिंदी कहानी पर जिस तरह से विश्वनाथ जी ने नज़र डाली है वह अविरल है। हरिशंकर परसाई को भी विश्वनाथ जी की आलोचना एक नई दृष्टि से देखती है। विश्वनाथ जी न किसी पोलोमिक्स का सहारा लेते हैं, न किसी गुटबंदी का। वह इकबाल का एक शेर है न,
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
अपने विश्वनाथ त्रिपाठी हमारे वही दीदावर हैं। उन को प्रणाम कीजिए। हिंदी समाज के छुद्र, अराजकों अपने आप पर शर्म कीजिए। अपने आस-पास कहीं चुल्लू भर पानी ढूंढिए। किसी बहस को इतना नीचे गिरा देने के लिए। (सरोकारनामा ब्लॉग से साभार)
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