मोदी को हॉलैंड में साइकिल भेंट किये जाने पर दो खास तरह की प्रतिक्रिया मीडिया में देखने को मिली। एक टीवी चैनल आनन-फानन ढूँढ लाया कि साइकिल किस ब्रैंड की है? ख़ूबियाँ क्या हैं? क़ीमत? वग़ैरह वग़ैरह। ग़नीमत यह कि इस ‘शोधपूर्ण जानकारी’ को ‘ब्रेकिंग न्यूज’ के टैग के साथ पेश नहीं किया। उधर, सोशल मीडिया, ख़ासकर फ़ेसबुक पर दिनभर बौद्धिक जुगाली करने वाले कुछ लोग इस उपहार की उपादेयता पर सवाल खड़ा करते हुए इसे मोदी की हैसियत से जोड़ने लगे। पर इस उपहार के सकारात्मक संदेश तक पहुँचने की कोशिश कहीं नहीं दिखी।
क्या इसे ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक चुनौती से जोड़कर नहीं देखा जा सकता? चीनी उत्पादकों के हाथों लगातार पिट रहे भारतीय साइकिल उद्योग को सरकारी संबल की नसीहत के तौर पर नहीं लिया जा सकता? मौजूदा साइबर युग में एकाग्रता और मनोयोग के क्षरण से निरंतर जूझ रहे बच्चों के लिए जरूरी संदेश के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता, जबकि शोध साइकलिंग को इसका बेहतर उपचार बता चुका है? हृदय और जोड़ों की तमाम व्याधियों के निवारक मंत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता? विकराल होती ट्रैफ़िक की समस्या से निपटने के कारगर विकल्प की प्रस्तुति नहीं हो सकती यह?
हॉलैंड के प्रधानमंत्री ख़ुद साइकिल का प्रयोग करते हैं। सिर्फ कसरत नहीं, यातायात के लिए भी। लिहाज़ा मोदी भी इस उपहार के महत्व को समझेंगे, जीयेंगे- हमें उनसे यही अपेक्षा करनी चाहिये। आज भी हम चीन के बाद दूसरे सबसे बड़े साइकिल निर्माता हैं। उपभोक्ता भी। 12 करोड़ साइकिल हर साल बनाते हैं, जिनमें से करीब दस करोड़ की सालाना खपत देश में ही हो जाती है। बाक़ी निर्यात। मगर यह भी सच है कि 130 करोड़ की आबादी के सापेक्ष यह तादाद कम है। काश कुछ ऐसा हो कि साइकिल मजबूरी की सवारी न रहकर मोबाइल की तरह हर वर्ग के लिए जीवन यंत्र बन जाये। देश की तरक़्क़ी का यह भी एक मानदंड होना चाहिये।
वरिष्ठ पत्तकार अनिल भास्कर की वाल से