ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब उसमें श्रद्धा, एकाग्रता तथा निर्मल मन हो और ऐसा भक्त कर्म के लिये सतत प्रयत्नशील हो तब ईश्वर के मिलन यानि अच्छे फल की प्राप्ति होती है…..
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुगअंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥
भावार्थ:- मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखा, तो हे तात श्री रामजी की भुजा में और मुझ में केवल दो ही अंगुल का बीच था….और वृन्दावन में जब यशोदा मैया नटखट भगवान् श्यामसुंदर को बाँधने की कोशिश करती हैं तो सारे वृन्दावन की रस्सी भी मात्र दो अंगुल के फर्क से छोटी रह जाती है जिस माँ की गोद में जाकर व्यापक ब्रह्म इतना छोटा हो गया उसके हाथ में अगर रस्सी भी आकर छोटी हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं माँ यशोदा के हाथ में रस्सी छोटी होने का कारण भगवान् श्यामसुंदर नहीं थे क्योंकि भगवान् ने रस्सी से न बंधने के लिये अपने शरीर को तो बड़ा नहीं किया था फिर माँ यशोदा क्यों नहीं बाँध पायी इसका कारण एक तो क्रोध के कारण बांधना चाहती थी और दूसरी ओर प्रेम के कारण उन्हें बाँधने में संकोच हो रहा था इसी कारण रस्सी छोटी रह जाती थी माँ के क्रोध और संकोच के कारण दो अंगुल का फर्क रहा मन में अगर किसी प्रकार का संशय है तो इश्वर को नहीं बाँधा जा सकता भगवान् से जब यह पूछा गया कि इस दो अंगुल का अभिप्राय क्या है ?
प्रभु ने कहा कि इनमें से एक अंगुल मेरी कृपा का प्रतीक है जो विकार रहित होने पर ही प्राप्त होती है तथा दूसरा अंगुल जीव के कर्म का प्रतीक है इसका तात्पर्य है कि ईश्वर की कृपा यानि ज्ञान के साथ-साथ जब तक जीव के कर्म का संयोग नहीं होता तब तक जीव तथा ईश्वर का मिलन नहीं होगा अर्थात इच्छित कर्म फल की प्राप्त नहीं होती ईश्वर स्नेह की रस्सी में बँधता है वस्तुतः ईश्वर इतने सर्वव्यापक है कि किसी भी बँधन में नहीं बँध सकते अर्थात ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब उसमें श्रद्धा एकाग्रता तथा निर्मल मन होऔर ऐसा भक्त यानि कर्म सतत प्रयत्नशील हो तब ईश्वर के मिलन यानि अच्छे फल की प्राप्ति होती है भक्त के लिये शास्त्रों में कहा है…..
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्
जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को न सुख को और न परमगति को ही प्राप्त होता अर्थात भक्त वह है जो अंतःकरण की शुद्धि करके कर्म करे…..
- अजीत कुमार सिंह