श्याम कुमार
आजम खां ऐसे नेता हैं, जिनका प्रदेश की राजनीति में उदय ही उनकी बदतमीजियों एवं बदजुबानियों के आधार पर हुआ। बड़े पैमाने पर लोगों ने उनका नाम तब जाना था, जब उनकी इस बात के लिए कड़ी आलोचना हुई थी कि उन्होंने भारतमाता को डाइन कहा है। उनकी बेलगाम जुबान का यह हाल रहा है कि वह किसी के विरुद्ध कुछ भी जहर उगलने के लिए चर्चित हो गए। उन्होंने तो संसदीय कार्यमंत्री के रूप में विधानसभा में विधान भवन के सामने स्थित भाजपा के प्रदेश-मुख्यालय को आतंकियों का अड्डा कहते हुए वह मुख्यालय वहां से हटाए जाने की मांग कर दी थी। मंत्री के रूप में उन्होंने तत्कालीन राज्यपाल राम नाईक के विरुद्ध जो अनुचित बातें कही थीं, उसका सभी को बुरा लगा था।
मुलायम सिंह यादव ऐसे राजनेता हैं, जिनके लिए यह कहावत चरितार्थ होती है कि उन्होंने धूप में बाल नहीं सफेद किए हैं। जिस प्रकार वीर बहादुर सिंह के लिए माना जाता था कि वह भविष्य की आहट भांप लेते हैं, वैसे ही मुलायम सिंह के लिए भी माना जाता रहा है कि उनमें भविष्य की आहट को भांप लेने की क्षमता है। मुलायम सिंह यादव के इतिहास पर नजर डाली जाय तो इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। एक बार मोरचा बनाने के लिए ममता बनर्जी ने जयललिता तक को साध लिया था, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने अचानक अपना स्टैंड बदलकर दूरी बना ली थी।
वैसे, यह भी सत्य है कि मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या के रामजन्मभूमि-प्रकरण में जिस नीति का अनुसरण किया, उसका उन्हें भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। तब वह इतना दहशत में आ गए थे कि मायावती की सरकार के बाद जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे तो पत्रकारवार्ता में पत्रकारों द्वारा रामजन्मभूमि से सम्बंधित सवाल पूछे जाने पर उन्होंने हंसते हुए उस सवाल का जवाब देने से तोबा कर ली थी। उस समय यह माना जा रहा था कि मुलायम सिंह यादव की वह सरकार भारतीय जनता पार्टी के परोक्ष समर्थन के बल पर गठित हुई है।
मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति को मुसलमानों पर आधारित किया तथा मुसलिम-तुष्टिकरण को पूरे जोरशोर से अपनाकर अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा बना दिया। लोग भूले नहीं है कि उन्होंने सिमी का समर्थन किया था। उनसे पहले कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना वोटबैंक बनाकर रखा हुआ था, जो बाद में पूरी तरह मुलायम सिंह यादव के पक्ष में खिसक गया। दलितों को मायावती पहले ही कांग्रेस से छीन चुकी थीं।
मुलायम सिंह यादव का मुसलिम-यादव गठजोड़ उन्हें राजनीति के शिखर पर पहुंचाने में सफल हुआ। मुलायम सिंह के मुसलिम-प्रेम की सफलता का नतीजा यह हुआ कि भाजपा व शिवसेना के अलावा देश के सभी राजनीतिक दलों में मुसलिम-तुष्टिकरण की जबरदस्त होड़ लग गई। मायावती ने भी मुसलिम-दलित गठजोड़ का दांव खेला तथा मुसलमानों का एक तबका मायावती के पक्ष में खड़ा होने लगा। मुसलिम वोटबैंक का दांव मुलायम सिंह यादव व मायावती के बीच डोलने लगा। आजादी के बाद देश की राजनीति में मुसलिम वोटबैंक का सिद्धांत इतना ताकतवर हो गया कि उसका बहुत बुरा खामियाजा हिंदुओं को भुगतना पड़ा। उपेक्षा से ग्रस्त हिंदुओं की दशा देश में दूसरे दरजे के नागरिकों के समान हो गई।
अचानक चमत्कार हुआ तथा देश की राजनीति में क्रांतिकारी मोड़ आ गया। वह मोड़ राजनीतिक पटल पर नरेंद्र मोदी के छा जाने से हुआ। नरेंद्र मोदी विश्व के एकमात्र ऐसे राजनेता हैं, जिन्हें विरोधियों द्वारा जितनी गालियां दी गई हैं और बदनाम करने के लिए जितने घृणित उपाय किए गए हैं, वैसा विश्व में अन्य किसी भी राजनेता के विरुद्ध नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी समस्त अग्निपरीक्षाओं में कामयाब होते हुए अंत में खरा सोना सिद्ध हुए। जो विरोधी तत्व नरेंद्र मोदी का सफाया करने में लगे हुए थे, उनका खुद ही सफाया हो गया। इस समय नरेंद्र मोदी न केवल देश में, बल्कि पूरे विश्व में छाए हुए हैं तथा देशवासी महसूस कर रहे हैं कि मोदी के रूप में देश को ऐसा उद्धारक मिल गया है, जो भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ एवं ‘सोने की चिड़िया’ बनाने में सफल होगा।
दूरदर्शी मुलायम सिंह इस तथ्य को समझ गए और यह भी समझ गए कि अब मोदी को हिला पाना संभव नहीं है। इसीलिए उन्होंने पिछली लोकसभा में नरेंद्र मोदी के पक्ष में स्पष्ट रूप से कह दिया था। ऐसी स्थिति में यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि मुलायम सिंह ने इतने दिनों के बाद उन आजम खां के पक्ष में पत्रकारवार्ता करने का कदम क्यों उठाया, जो एक बार उनका साथ छोड़कर अलग हो गए थे? समीक्षकों का मत है कि मुलायम सिंह ने अखिलेश यादव को स्थापित करने के लिए अपने को पीछे करते हुए अखिलेश को समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने दिया था तथा उन्हें कुछ भी करने की पूरी छूट दे दी थी। लेकिन अखिलेश यादव ने राहुल गांधी का अनुसरण करते हुए अपने मूर्खतापूर्ण कृत्यों व बयानों से पार्टी का बंटाधार कर दिया।
माना जाने लगा कि सपा का ‘यादव वोटबैंक’ अब सपा का कोई भविष्य न देखकर भारतीय जनता पार्टी की ओर खिसक जाएगा। मुलायम सिंह यादव समझ गए कि इस पलायन को रोकने की योग्यता व क्षमता अखिलेश यादव में नहीं है और इसीलिए उन्हें स्वयं मैदान में उतरना जरूरी लगा। इसके लिए उन्हें आजम खां से सम्बंधित अवसर उपयुक्त प्रतीत हुआ। हालांकि मुलायम सिंह यादव का यह कदम बहुत जोखिम भरा है। कारण यह कि मुलायम सिंह यादव को पुनः सक्रिय होने में काफी विलम्ब हो गया है। साथ ही, आजम खां इतना अधिक बदनाम हो चुके हैं कि अब उनकी छवि को स्वच्छ सिद्ध कर पाना बहुत कठिन है। उनकी छवि तभी सुधर सकती है, जब आजम खां सभी मामलों में न्यायालय द्वारा निर्दाेष घोषित कर दिए जाएं। मुसलमानों का भी एक अच्छा-खासा तबका आजम खां के विरुद्ध है।
समाजवादी पार्टी का बड़ा वोटबैंक यादवों के बाद मुसलिम रहे हैं। लेकिन कुछ समय से मुसलमान तबका सपा का भविष्य अंधकारमय देखकर मायावती की ओर मुड़ रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि मुसलिम वर्ग भारतीय जनता पार्टी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे एवं उस नारे के निष्पक्ष कार्यान्वय को देखकर कुछ-कुछ भाजपा की ओर भी मुड़ने लगा है। इसलिए अपनी पार्टी को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव को सक्रिय होना पड़ा है। जिस प्रकार उन्होंने सपा कार्यकर्ताओं को आजम खां के पक्ष में सड़क पर उतरने के लिए ललकारा है, वह पार्टी-कार्यकर्ताओं को निष्क्रियता के गर्त में से निकालकर उनमें प्राण फूंकने का प्रयास है। मोदी सरकार ने देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोरतापूर्वक जो अभियान शुरू किया है, उसकी आंच अखिलेश यादव तक भी जाने लगी है। इसलिए उसका सामना करने के लिए मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतरने के लिए तैयार करना जरूरी हो गया है।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं