जी के चक्रवर्ती
देश की राजधानी में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान में अब दस दिन से भी कम समय अवशेष हैं। वहां चुनाव प्रचार पूरे शबाब पर है राजनीतिक दलों ने यहां के सत्ता हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। यहां के चुनाव प्रचार में जिस तरह से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलिसिला बदस्तूर जारी है उससे तो यहां के मतदाताओं जहन में इस तरह के प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर हम किसे वोट दें? ऐसे विचार कमोवेश देश के प्रत्येक राज्यों के जनता में एक समस्या के रूप में चुनाव के वक्त उपस्थित होती आयी है। जिसकी वजह से निचले स्तरों पर जीवन यापन करने वाले लोगों में असमंजस्य की स्थिति में पड़ना स्वाभाविक सी बात हैं लेकिन जब से देश की सत्ता पर मौजूदा सरकार सत्तासिन है तब से जनता को यह आभास होने लगा है कि नही जो देश मे पिछले समय हो चुका है वैसी स्थिति अब नही है और शायद आएगी भी नही।
चुनावों के वक्त सरकारें अपनी उपलब्धियों एवं दावों का महिमामंडन करते नहीं थकती वहीं पर विपक्षी दल सरकार की असफलताओं को मुद्दा बनाने में लगे रहने से ऐसे में जनता के मध्य बहुत बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं जोकि शायद व्यावहारिक रूप से पूरे नही किये जा सकतें हैं। जाहिर सी बात है, कि ऐसा चुनाव प्रचार उम्मीदवारों को गुमराह ही ज्यादा करता है।
दिल्ली सरकार भी अपने द्वारा इन पांच वर्षों के दरमियान किये कार्यों एवं उपलब्धियों के साथ आम आदमी पार्टी जनता के मध्य खड़ी है, वहीं कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी के नेता उम्मीदवार जैसे लोग अपने भाषणों एवं कथकों से उसे कमतर साबित करने के प्रयास में लगे हुये हैं।
फिलहाल इस चुनाव में दिल्ली के लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, परिवहन व्यवस्था, प्रदूषण, नगर निगम, पानी, अनाधिकृत कॉलोनियों को पक्का किये जाने जैसे अनेकों मुद्दे हैं जिन पर वहां की जनता को अपना फैसला देना है। ऐसे में जनता राजनीतिक दलों से उम्मीद करती है कि वे सही बात करें, और उनके बीच जो वादे एवं दावे करें उसे गंम्भीरता एवं गहनता से पूरा करें, लेकिन दरअसल होता यह है किसी की भी सरकार बनने के बाद नेता सत्ता सुख भोगने और अपना भविष्य बनाने मे लग जातें हैं।
दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दशा-दिशा को लेकर चल रहे दावों, आरोपों-प्रत्यारोपों का मोजूदा दौर हैरान कर देने वाला है। दिल्ली सरकार का दावा है कि पिछले पांच सालों में उसने सबसे ज्यादा काम लोगों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं पर काम किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प करने को लेकर उसे राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया है इसके अतिरिक्त देश के कुछ राज्यों ने दिल्ली के स्कूलों में आकर सच्चाई को अपनी आंखों से देखा भी है। इसी के साथ ही साथ दिल्ली के सरकारी स्कूलों की परीक्षा नतीजों में भी पहले के अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है। एक तरह से दिल्ली सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में जो नया मॉडल पेश करने की कोशिश की है, उसे दूसरे राज्यों ने भी स्वीकार कर अपने यहां इसे प्रयोगों में लिये जाने की रुचि दिखाई है।
हकीकत कुछ है और बताई कुछ जा रही है। संशोधित नागरिकता कानून, एनआरसी जैसे मुद्दों पर चल रहे विरोध-प्रदर्शनों ने राजधानी के चुनावी माहौल और भी ज्यादा गरमा दिया है जिसकी बजह से पिछले दो दिनों में प्रचार के दौरान नेताओं ने ऐसे -ऐसे तीक्ष्ण शब्दों के प्रयोग किये हैं कि इसका प्रभाव मतदाताओं के बीच क्या होगा? इस बात पर हमारे जिम्मेदरों को सोचने की आवश्यकता है।