डॉ दिलीप अग्निहोत्री
जीवन यापन का लक्ष्य होना ही मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं होता। आहार तो अन्य जीव भी ग्रहण करते है। मनुष्य के पास विवेक होता है। इस विवेक के बल पर वह इहलोक के साथ अपना परलोक भी सुधार सकता है। यह विचार प्रख्यात संत अतुल कृष्ण महाराज ने टिकैतनगर की रामकथा में व्यक्त किये। उनके अनुसार प्रत्येक यात्रा का लक्ष्य निर्धारित होता है। ट्रेन,बस,पैदल विमान,या किसी अन्य साधन से यात्रा में लक्ष्य का पहले से पता होता है। जीवन के लक्ष्य में विकल्प नहीं है। पानी की बूंद ढलान की ओर जाएगी, क्योकि उसे समुद्र से मिलना होता है।
इसी प्रकार मनुष्य जीवन का लक्ष्य परमात्मा है। यह लक्ष्य तय हो जाये, तो व्यक्ति उसी के अनुरूप जीवन यापन करेगा। जिनको परमात्मा से मिलना है,वह भक्ति मार्ग पर चलें। रामायण को अपनाएं। इस लक्ष्य में परिवर्तन संभव ही नहीं। कितने जन्म लगेंगे यह व्यक्ति के विवेक से निर्धारित होता है। संत अतुल कृष्ण जी ने बताया कि यह लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। घर में राम विवाह संबन्धी चौपाई का भी नित्य गायन करना चाहिए।
जब ते राम ब्याही घर आये, नित नव मंगल मोद बधाये।
भुवन चारी दस बूधर भारी, सूकृत मेघ वर्षहिं सूखवारी।
रिद्धी सिद्धी संपति नदी सूहाई , उमगि अव्धि अम्बूधि तहं आई।
मणिगुर पूर नर नारी सुजाती, शूचि अमोल सुंदर सब भाँति।
कही न जाई कछू इति प्रभूति , जनू इतनी विरंची करतुती।
सब विधि सब पूरलोग सुखारी, रामचन्द्र मुखचंद्र निहारी।
अपने मन को भी स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए। दर्पण साफ न हो तो चेहरा साफ नहीं दिखता है। इसको स्वच्छ रखने की आवश्यकता होती है। दर्पण भी ठीक हो, आंख भी स्वच्छ हो,तब भी इससे केवल भौतिक चेहरा दिखता है। अंतर्मन को देखने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। ज्ञान और वैराग्य से विवेक उपजता है।
बिनु सत्संग विवेक न होई,
आज्ञा चक्र विचारों का केंद्र है। शिव जी का नेत्र इसी का प्रतीक है। श्रीराम मन के दर्पण को स्वच्छ करने की बात कहते है, जिससे गुरु के द्वारा दिये गए ज्ञान को भली प्रकार ग्रहण कर सकते है। भीतर के चेहरे को देखने के लिए न दर्पण चाहिए, न आंखे। यदि परमात्मा को इस जीवन में स्वीकार किया तो वह सखा व चिकित्सक के रूप में मिलते है। इसमें चीकित्सकीय सलाह की भांति अवगुण छोड़ने पड़ते है। काम, मोह,आदि को छोड़ना पड़ता है। प्रभु राम ने यही सिखाया। वह मर्यादा पुरुषोत्तम बन कर ही आये थे। वैदिक जीवन को उन्होंने अपने लिए अपनाया। इसी को सीख दी। राम चरित मानस पाठ से प्रभु के निकट पहुंचा जा सकता है।
यदि इस जीवन मे ऐसा नहीं किया तो फिर प्रभु चिकित्सक के रूप में नहीं बल्कि न्यायधीश रूप में मिलते है। वहां कोई सहायक नहीं होता। ऐसा दर्पण होता है जिसमें व्यक्ति के कर्म दिखाई देते है। इसी आधार पर ही निर्णय सुनाया जाता है।
छोटे बच्चे का मन निश्छल होता है। लेकिन इसकी आंखे चंचल होती है। वह खिलौना देख कर मचल जाता है। बड़े होने पर मन चंचल हो जाता है। इस को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। इसमें गुरु सहायक होते है। गुरु मात्र व्यक्ति नहीं है। ज्ञान ही गुरु के प्रतीक होते है। दशरथ जी जैसा प्रतापी राजा कोई नहीं है। क्योंकि उनके आंगन में स्वयं प्रभु ने अवतार लिया था। ऐसे दशरथ दर्पण देखते है।
उनका अपने सफेद बालों से संवाद होता है। अर्थात उन्हें अपने वृद्ध होने का ज्ञान होता है। लगा कि जीवन बीता जा रहा है। अब शरीर का नहीं, अब इहलोक का नहीं,बल्कि परलोक की चिंता करें। दसरथ ने देखा कि उनकी जय जय कार करने वाले वह है,जो सत्ता से लाभ उठाते रहे है। इनको देख कर भी दशरथ को लगा कि अब उनका पहले जैसा नियंत्रण नहीं रहा। इसलिए उन्हें अपना शासन त्याग देना चाहिए। दशरथ जी पूर्व जन्म में मनु महाराज थे। भगवान बारह ने जिस वन में पृथ्वी को स्थापिक किया था।
इस स्थान का नाम बाराबंकी है।मनु को ज्ञान हुआ कि वह इतने वर्षों तक यह भूल गए थे कि वह पृथ्वी पर क्यों आये थे। विषयों से उनका मोह आज भी है। मुझे भगवत प्राप्ति करनी थी, उसके लिए प्रयास ही नहीं किया। वह सिहासन छोड़ने का निर्णय करते है। उस समय उनके बड़े पुत्र वहां नहीं थे। इसलिए छोटे को राज्य सौंपा। सतरूपा के साथ वन चले गए। घोर तप किया। इतने सुंदर भगवान प्रकट हुए तो मनु सब भूल गए। वर मांगा कि अगले जन्म में मुझे आप जैसा पुत्र मिले। प्रभु ने कहा कि मेरे जैसा कोई नहीं, इसलिए मुझे ही जन्म लेना होगा। मनु ने कहा कि आप भी आइए और अपने जैसा भी साथ लेकर आईए। इसलिए प्रभु के साथ भरत जी भी आए।
उम्र बढ़ने पर पहले लोग वन में जाकर तप करते थे। अब वह ऐसा नहीं कर सकते। उन्हें रामकथा रूपी वन में विचरण करना चाहिए। जिस प्रकार पवन सर्वत्र व्याप्त है,उसी प्रकार पवन पुत्र हनुमान जी की सबको कृपा मिल सकती है। एप्पल कम्पनी के अमेरिकन मालिक को हनुमान भक्त नीम करोरी बाबा ने प्रसाद रूप में सेब दिया था। उन्होंने नीम करोरी बाबा से कहा कि इसको पहले आप ग्रहण करके तब हमको दें। यही कटा हुआ सेब उन्होंने ग्रहण किया,इसी को अपनी कम्पनी का लोगो बनाया। विभीषण जब प्रभु की शरण में आये, तो उनका तत्काल राजतिलक कर दिया।
इस प्रकार प्रभु ने यह बताया कि शुभ कार्य में बिलंब नहीं करना चाहिए। यह कार्य प्रभु ने तब किया जब समुद्र पर सेतु ही नहीं बना था। अप्रिय या क्रोध में लिए गए निर्णय को कल के लिए टाल देना चाहिए। प्रभु राम सुग्रीव पर क्रोधित हुए। लेकिन इस निर्णय को इन्होंने कल के लिए टाल दिया था। दशरथ जी ने श्रीराम को युवराज बनाने का निर्णय कल पर टाल दिया था। देवता जानते थे कि श्रीराम राजा बने तो वह रावण के साथ संधि से बन्ध जाएंगे।क्योकि रावण की सभी सम्राटों से आक्रमण न करने की संधि थी।मंथरा की बुद्धि सरस्वती ने विचलित की। क्योकि जो अयोध्या में जन्मा,जिसने सरयू का जल पिया है, वह श्रीराम का विरोध नहीं करेगा। इसी लिए माता सरस्वती ने मंथरा का चयन किया। वह कैकेई के मायके से अयोध्या आई थी। इसलिए वह आसानी से विचलित हो गईं। लेकिन यह सब भी प्रभु की इच्छा से हो रहा था।