डॉ दिलीप अग्निहोत्री
कांग्रेस की नजर में शिवसेना घोर साम्प्रदायिक और शिवसेना की नजर में कांग्रेस तुष्टिकरण की पार्टी रही है। दोनों की विरासत भी बिल्कुल अलग अलग रही है। कांग्रेस कभी खिलाफत आंदोलन चला चुकी थी। उस पर आजादी के बाद भी तुष्टिकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता के आरोप लगते रहे है। शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने इसी आधार पर कांग्रेस का विरोध किया था। उन्होंने हिंदुत्व की प्रेरणा से शिवसेना की स्थापना की थी।
गठबन्धन सरकार के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनते रहे है। कांग्रेस शिवसेना एनसीपी ने भी साझा कार्यक्रम बनाने की बात कही है। लेकिन विचार का मुद्दा यह है कि इनके न्यूनतम साझा में किसका पडला भारी रहेगा। शिवसेना को मुख्यमंत्री पद की सर्वाधिक कीमत चुकानी पड़ेगी। छप्पन सीट के साथ उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है। जबकि उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने वालों की संख्या सौ से अधिक है।
जाहिर है कि कांग्रेस और शिवसेना अपना कथित सेक्युलर रूप नहीं छोड़ना चाहेंगी। इसमें भी कांग्रेस की कठिनाई कहीं ज्यादा है। एनसीपी को केवल महाराष्ट्र तक सीमित रहना है। उसका काम चल सकता है। लेकिन कांग्रेस को अन्य प्रदेश भही देखने है। अभी तक वह कहती रही है कि भाजपा, शिवसेना को रोकने के लिए कुछ भी कर सकती है। अब क्या कहेगी। शिवसेना का हिंदुत्व एजेंडा ज्यादा खुला है। यदि उद्धव ठाकरे अपने वादे के अनुरूप अयोध्या आते है तो कांग्रेस के लिए चेहरा छिपाना मुश्किल होगा। जबकि कुछ समय पहले ही उद्धव अयोध्या आये थे। उन्होंने बाबरी ढांचा विध्वंस में शिवसैनिकों की भूमिका पर गर्व व्यक्त किया था।
इसमें संदेह नहीं कि भाजपा भी पीडीपी जैसी पार्टी के साथ सरकार बना चुकी है। लेकिन इसकी तुलना महाराष्ट्र से नहीं हो सकती। महाराष्ट्र में तो भाजपा के नेतृत्व में शिवसेना गठबन्धन को जनादेश मिला था। ऐसे में शिवसेना का कांग्रेस एनसीपी के साथ सरकार बना लेना अनैतिक व जनादेश का अपमान करने वाला निर्णय है। जम्मू कश्मीर में जब सभी विकल्प समाप्त हो चुके थे,तब भाजपा पीडीपी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया, इसके बाद सरकार गठित हुई। भाजपा का सँख्याबल भी पीडीपी से लगभग बराबर था। हरियाणा में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। उसे दुष्यंत चौटाला की पार्टी का समर्थन मिला। इसलिए सरकार बनाई गई। यह सब निर्णय अन्य कोई विकल्प न होने के कारण लिए गए थे।
फिलहाल उद्धव ठाकरे को सरकार बनाने के लिए पहला समझौता करना पड़ा। वह अपने बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। लेकिन उनकी मांग को कांग्रेस एनसीपी ने खारिज कर दिया। उन्होंने उद्धव को मुख्यमंत्री बनने का निर्देश दिया। उद्धव ने इसे मंजूर किया। एनसीपी के सामने उद्धव आज्ञाकारी जैसा आचरण कर रहे थे।इसके बाद शिवसेना पर हिंदुत्व के एजेंडे को छोड़ने का दबाब बनाया गया। बताया जा रहा है कि इस दबाब के कारण ही तीनों के गठबन्धन में इतना समय लगा था। शिवसेना को यह भी निर्देश दिया गया कि वह अपने कार्यकर्ताओं की दबंगई पर नियंत्रण रखेगी। कांग्रेस मुस्लिम आरक्षण को भी हवा दे सकती है।
यह स्थिति शिवसेना के लिए बेहद अप्रिय होगी। भाजपा ने भी गठबन्धन सरकार चलाने के लिए अपने कोर मुद्दों पर जोर न देना स्वीकार किया था। लेकिन उसने इन मुद्दों को कभी छोड़ा नहीं थी। भाजपा ने सदैव कहा कि ये उंसकी आस्था के मुद्दे है। जब भी वह इनपर अमल की क्षमता में होगी,उसे पूरा किया जाएगा। भाजपा ने इसे पूरा करके दिखा दिया। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर, पैंतीस ए, तीन तलाक पर रोक, राम मंदिर निर्माण आदि ऐसे ही मुद्दे थे। भाजपा के सक्षम होते ही इन्हें अंजाम तक पहुंचाया गया। लेकिन कमजोर होने के बाद भी भाजपा ने कभी कांग्रेस के सामने समर्पण नहीं किया था। जबकि उद्धव ठाकरे कमजोर सँख्याबल के बाद कांग्रेस व एनसीपी की शरण मे चली गई। इन दोनों में कौन अपना चोला बदलेगा, यह देखना होगा। फिलहाल शिवसेना संप्रग के सेक्युलर फ्रेम में पैबंद की भांति जुड़ने का जतन कर रही है।