सुनो,
उस बारिश में कितना भीगे थे हम,
याद है तुम्हे ..?
इतना भीगे थे कि बारिश ने
धो डाली थी सारी गलतफहमियाँ,
धुल गयी थी मन की मैली गाँठें
और पिघल गये थे पुराने आँसुओं के ग्लेशियर ।
उस बाढ़ में हमने महसूस किया था,
एक दूसरे के मन की थाह.
पाट मिट गये थे नदी के अस्तित्व में ।
लेकिन, जैसा कि हमेशा होता है ..
भावनाओं का ज्वार थमने पर
किनारे फिर अस्तित्व में आ गये हैं ।
फिर भी क्या हुआ …?
जो इस मानसून के बादल
हमारे घर से उमड़ घुमड़कर उड़ गये,
तुम्हारे आँगन की ओर ।……और ..,
सुना है इस बार भी खूब जमकर बरसे है ।
तुम्हारी यादों पर जमी हुई धूल
बह गयी होगी फिर से ।
चलो,अब इतना तो बता दो ,
इस बाढ़ के साथ
हमारी यादें भी लौटकर
आयी है ..कि नहीं….?
-अरविन्द कुमार साहू