राहुल कुमार गुप्ता
‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा’ ये चौपाई, गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस में लिखी थी. इस चौपाई से कर्म के महत्व को समझा जा सकता है।
श्रीमदभागवत गीता में भी कर्म की ही प्रधानता बताई गई है।
श्रीरामचरित मानस के सुंदरकांड में श्रीराम जी कहते हैं कि ‘निर्मल मन जो सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।’
अर्थात अगर ईश्वर है तो ईश्वर को पाने की पहली शर्त है कि इंसान के अंदर इंसानियत हो। अगर ईश्वर नहीं है तब भी इंसानियत अपनाना ही इंसान का सबसे बड़ा धर्म है इसी से विश्व में खुशी, शांति और निर्भयता आती है।
जिसके अंदर इंसानियत है वो अपने कर्म सही से करता रहे वही उसकी पूजा है। इस इंसानियत को बनाए रखने और कर्मों को उचित रूप से करने के लिए, “पूजा” आत्मिक शांति, इच्छाशक्ति, कर्म के लिए सामर्थ्य देने और उसे बनाए रखने के साथ विराम का स्थल भी है। हां ! जिनके अंदर ये गुण विद्यमान हैं उनके लिए सच में कर्म ही पूजा है। वो चाहे फिर आस्तिक रहे या नास्तिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिनमें ये गुण नहीं हैं वो इबादत या पूजा का सहारा लेते हैं। जिससे वो सही कर्मों पे चल सकें। सनातन धर्म की ये खूबी है कि इसमें सभी दर्शन समाहित हैं। जैसे पूजा और तप से भी आप महान हो सकते हैं, और कर्मों से भी आप महान हो सकते हैं। साकार रूप में ईश्वर की इबादत कर सकते हैं और निराकार ईश्वर की भी इबादत कर सकते हैं। या आप अध्यात्म द्वारा रह आत्म दीपो भव: की उच्च परिस्थिति में आ सकते हैं। ऐसे तमाम अलग अलग भारतीय दर्शन से बहुत से लोग अब तक महानता का शिखर चूम चुके हैं। ऐसे कई महान लोगों के उदाहरण इतिहास से लेकर अब तक देखने को मिल जाते हैं। पर मध्य एशिया और पश्चिमी देशों में उत्पन्न धर्मों/मजहबों में कर्म का कॉन्सेप्ट गौड़ अवस्था में है। वहां जो ईश्वर के बारे में बताया गया वो आश्चर्य चकित करता है। जैसा कि ईसाई धर्म को मानने वाले मानते हैं कि ईश्वर उसे ही लाभ देगा जब वो ईसाई बन जाएगा और ईशु की शरण में आ उसकी प्रशंसा करता रहेगा। अल्लाह उसे ही जन्नत बख्शेगा जो मुसलमान बन जाएगा, और अल्लाह के अलावा किसी और को नहीं पूजेगा, ऐसा यहूदियों में भी है। यहां ईश्वर की सत्ता मनवाने के लिए प्रलोभन और तलवारें हैं, जबकि सनातन में ऐसा नहीं है। यहां ईश्वर सबके लिए है, कोई उसकी इबादत करे या न करे बस कर्म अच्छे रखे, इंसानियत पे ही रहे।
जिस प्रकार ईश्वर के बनाए सूरज, चंद, सितारे, पानी, वायु, अग्नि, जमीन, पेड़ पौधे, आदि सबके लिए समानता का भाव रखते हैं तो भला वो महान ईश्वर, वो जगत का पिता, वो 70 माताओं का प्यार देने वाला भला क्यों किसी से भेद करेगा?
जहां भारतीय दर्शनों को छोड़ अन्य दर्शनों में कर्म की प्रधानता सेकेंडरी है वहीं सनातन में कई जगहों पर कर्म की ही प्रधानता पे ही जोर दिया गया है फिर वो किसी भी जाति, धर्म या संप्रदाय का ही क्यों न हो, अगर उसके कर्म अच्छे हैं और मन उसका पवित्र है तो उसे ईश्वर की कृपा मिलनी ही मिलनी है, यहां भेदभाव की कोई जगह नहीं। हां! सनातन में चार वर्णों का जिक्र आता है। वर्ण एक व्यवस्था थी।
शुरुआती दौर में कर्मों के हिसाब से वर्ण तैयार होता था, किंतु बाद के लोगों ने उत्तर वैदिक काल के बहुत बाद वर्ण व्यवस्था को जन्मजात कर लिया, ये उस समय के पावरफुल दुनियावी लोगों की करतूत रही । ईश्वर के लिए तो सब जीव उसकी संतानें हैं सब उसी के अंश से बने हैं, इसलिए वो सब पर दया और करुणा का ही व्यवहार करता है। जीव, प्रकृति, पदार्थ ये सब ईश्वर के अंश से ही बने हैं। बिग बैग थ्योरी जो ब्रह्माण्ड की उत्पति के बारे में जानकारी देती है उससे भी पता चलता है कि सब ऊर्जा से ही बने हैं। सनातन में वो परम ऊर्जा ही ईश्वर है। यहां ईश्वर कहते हैं कि किसी की भी इबादत या उपासना करें वो उनको ही पहुंचता है, भले उसके अंशों(जीव, प्रकृति या पदार्थ) या संपूर्ण रूप में ही उसकी इबादत या उपासना की जाए। उसे समान रूप से ही खुशी मिलती है। यहां ईश्वर किसी और की इबादत करने में ईर्ष्या नहीं करता। क्योंकि सबमें वही है। जिस वस्तु या जीव को जिन गुणों से भरकर बनाया है वो अपने अपने गुणों पे ही रहकर जीवन चक्र या संसारी चक्र पूरा करते हैं। लेकिन इंसान को उसने विशेष बनाया है इंसान की विशेषता अन्य जीवों से मात्र इतनी है कि उसमें विवेक और तर्क का समावेश कर दिया है उसमें इंसानियत दे उसे खोजी बनाया है। ताकि वो इंसानी राह में आकर मोक्ष रूपी मंजिल खोज सके। सनातन में मोक्ष के लिए तीन मार्ग भी बताए गए हैं, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग। जन्नत या स्वर्ग की परिकल्पना सनातन में अन्य धर्मों की तरह प्रमुख नहीं है बल्कि ये बहुत ही गौड़(सेकेंडरी)अवस्था में है। सनातन में ही कुछ जगहों पर अच्छे कर्म के साथ ईश्वर की भक्ति पे भी ज्यादा जोर दिया गया हैं। क्योंकि ये सर्वथा सरल मार्ग है।
मोक्ष के लिए ये तीन मार्ग इसलिए भी हैं कि इंसानों में विभिन्न विचारों, विभिन्न सामर्थ्यों, विभिन्न इच्छाशक्तियों, विभिन्न गुणों और विभिन्न आइक्यू वाले इंसान हैं। इसलिए सनातन में सभी के लिए सभी दर्शन मिल जाते हैं। अन्य दर्शनों के जैसे यहां कोई पाबंदी नहीं है। यहां तर्क करने की पूरी स्वतंत्रता है। मध्य एशिया और पश्चिमी दर्शनों में तर्क के लिए सख्त पाबंदी है, यहां पहली शर्त यही है कि आप तर्कविहीन रहकर जितना उनकी किताबों में लिख दिया गया है, उतना ही मानो, यहां तर्क या अक्ल का इस्तेमाल किया तो ईश्वर जहन्नुम की आग देगा। पर सनातन धर्म में ऐसा नहीं है, यहां आपके विचारों को भी आकाश (स्वतंत्रता) दिया गया है।
कुछ भी सोचिए, तर्क करिए, अक्ल का प्रयोग, अक्ल लगाने के लिए ही इंसान मात्र को दी गई है। हां! इबादत करें या न करें इंसानियत की राह में चलते रहिए ईश्वर रूपी मंजिल स्वतः मिल जाएगी। इबादत या पूजा या नाम जप करने से आत्मविश्वास बढ़ता है, सही राह में चलने के लिए सामर्थ्य मिलता है, ये सामर्थ्य भी हमारी आत्मा हमे प्रदान करती है। वैज्ञानिक रूप से पॉजिटिव रहने में कुछ विशेष हार्मोन दिमाग स्रावित करता हैं जो हमको सामर्थ्य प्रदान करता है। खुश रहने और आत्मविश्वास बढ़ाने में, शरीर में डोपामाइन, सेरोटोनिन, एंडोर्फिन और ऑक्सीटोसिन जैसे “हैप्पी हार्मोन्स” का स्राव होता है जो मूड को बेहतर बनाते हैं और सामर्थ्य प्रदान करते हैं।
श्रीमदभगवद गीता में भी योगीराज श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो तर्कसंगत है वही विज्ञान है, वही धर्म है।…..