जी के चक्रवर्ती
भारत से सटे हुये एक देश अफगानिस्तान कभी भारत की सरजमी कहलाने वाला यह देश आज तालिबान विद्रोही के चंगुल में फंसकर अपनी स्वत्रंतता खो चुका है और उस पर तालिबान कब्जा जमाता चला गया जबकि अभी वहाँ पर अमेरिकी सेना मौजूद है। तालिबानी चाहते हैं कि उन्हें राजधानी का नियंत्रण शांतिपूर्ण तरीके से सौंप दिया जाए। एक बड़ी विचित्र सी बात है कि तालिबान का अफगानिस्तान पर लगभग कब्जा हो चुका है, जबकि अमेरिका के सैनिकों को वापस बुलाने की समयसीमा अभी खत्म भी नही हुई थी।
वर्ष 1980 के अंतिम महीने में जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ के बाद अमेरिका भी अपनी पकड़ बनाने में नाकामियाब रहा तो शीत युद्ध के दौरान जिन मुजाहिद्दीनों लड़ाकों को अमेरिका ने सोवियत सेना के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया था आज वही मुजाहिद्दीन सैनिकों के हाथों उसकी शिकस्त हुई।
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यदि आज हम कहें कि यहां पर उसने एक ऐसी चूक की है, जिसके कारण वह स्वमं सवालों के घेरे में है। अमेरिका असल में अफगानिस्तान के जमीनी स्थितियों का ठीक तरह से अनुमान लगाने में असफल रहा। शायद यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 8 जुलाई 2021 के दिन दिये गये एक बयान में उन्होंने यह कहा कि अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान से वापस लौटने का यह अर्थ नहीं है कि अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो जाये क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति का अंदाजा था कि अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल के तीन लाख जवान मात्र 75 हजार तालिबान विद्रोहियों के ऊपर भारी पड़ेंगे।
अमेरिका ने अब तक यहां के सैनिकों की प्रशिक्षण, हथियार, वेतन इत्यादि पर 83 अरब डॉलर तक की रकम खर्च कर डाला है लेकिन यह भी एक सच है कि यहां के अफगानी कमांडर भ्रष्ट थे। जिसके कारण उनके जवानों का मनोबल इतना सशक्त नहीं हो पाया जैसा कि होना चाहिये था जिससे वे तालिबानी विद्रोहियों से जमकर मुकाबला कर पाते और जब एक के बाद एक शहरों को तालिबान विद्रोही अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया तो वहां के अफगानी जवानों ने उनसे मुकाबला करने की बजाय वहां से भाग खड़े हुये, जबकि तालिबानी लड़ाकों के मुकाबले उनके पास कहीं अधिक अत्याधुनिक हथियार थे। जहां तक वहां के कमांडरों के भ्रष्टाचार की बात करें तो स्वमं अमेरिकी जांच रिपोर्ट्स से यह बात उभर कर सामने आ चुकी है।
तालिबानों को लेकर यह स्पष्ट है कि यह एक सोच ही नहीं बल्कि मानवता के भी दुश्मन है। उदारवादिता या प्रगतिशीलता वाली विचारधारा से उनका कोई दूर तक का वास्ता नहीं है। शिक्षा विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के यह प्रबल विरोधी भी हैं। इन्हीं सरफिरों ने मलाला यूसुफ़ज़ई पर जानलेवा हमला कर अफ़ग़ानी लड़कियों को शिक्षा हासिल करने से रोकने का सन्देश दिया था।
अफगानिस्तान के कई पूर्व सैन्य अधिकारियों का ऐसा मानना था कि अमेरिकी सैनिकों को अभी यहां से वापस हटाना नही चाहिए था लेकिन तालिबान के साथ शांति वार्ता के दौरान अमेरिकी प्रतिनिधियों ने ऐसे भाव प्रकट किये कि जैसे यहां के विद्रोही अब बिल्कुल बदल चुके हैं। आज उसकी इस गलती की कीमत 3.3 करोड़ अफगानियों को चुकानी पड़ रही है, जिन्हें मध्ययुगीन दौर में फिर से धकेल दिया गया है। आगे चलकर अमेरिका की यह गलती सम्पूर्ण दुनिया पर भी भारी पड़ जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी क्योंकि वास्तव में तालिबान बदला नहीं है। ऐसे में अमेरिका को क्या फिर से अपनी अफगान नीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?