सदियों से प्रकृति हमें हवा, रोशनी और पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ मुफ्त में देती आई है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम इनका सम्मान करें, इनकी रक्षा करें और इन्हें व्यर्थ न गँवाएँ। इनका क्षय न केवल हमारे लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी गंभीर संकट पैदा कर सकता है।
लखनऊ में भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, यही चेतावनी हमें प्रकृति की ओर से मिल रही है। शहर के कई इलाकों में अब पानी निकालने के लिए बोरवेल 1000 फीट तक गहरे करने पड़ रहे हैं। इस साल ही 40 से अधिक नलकूप पूरी तरह सूख चुके हैं या काम करना बंद कर चुके हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, बढ़ती जनसंख्या और भूजल के अंधाधुंध दोहन के कारण अगले 10 सालों में शहर के अधिकांश नलकूप सूख जाएँगे। साल 2040 तक लखनऊ पूरी तरह सतही जल (नदी-नहर और तालाबों) पर निर्भर हो जाएगा। इसका सबसे बड़ा कारण घरों से लेकर बाहर तक पानी की बेशुमार बर्बादी है।
शहर का प्रमुख जलस्रोत कठौता झील भी कई बार सूखने की कगार पर पहुँच चुका है। जल निगम का कहना है कि संकट से निपटने के लिए कम से कम 100 क्यूसेक अतिरिक्त पानी की जरूरत है, लेकिन सिंचाई विभाग के पास इतना पानी उपलब्ध ही नहीं है क्योंकि नहरों में पानी का स्तर पहले ही बहुत कम हो चुका है।
भू-वैज्ञानिक वर्षों से इस संकट की चेतावनी दे रहे हैं। कुछ साल पहले सरकार ने वर्षा जल संचयन (रेन वॉटर हार्वेस्टिंग) को सभी निजी व सरकारी भवनों में अनिवार्य किया था, लेकिन संबंधित विभागों ने इसे गंभीरता से लागू नहीं किया। कुछ जागरूक नागरिकों ने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास जरूर किए, पर व्यापक अव्यवस्था के बीच वह प्रयास नाकाफी साबित हुआ।
आज जरूरत है एक सामूहिक “पानी बचाओ” अभियान की। अगर हम अभी नहीं चेते, तो 10-12 साल बाद यह संकट हमारे सिर पर होगा। तब शायद हम न रहें, लेकिन हमारे बच्चों को इसका खामियाजा जरूर भुगतना पड़ेगा।प्रकृति हमें बार-बार इशारा दे रही है। अब भी वक्त है – समझें, जागें और पानी बचाएँ। हर बूंद मायने रखती है।







