अंशुमाली रस्तोगी
बच्चे भी आखिर क्या करें? वे भी मजबूर हैं। जब कोर्स की किताबों का इतना भार उन पर डाल दिया जाएगा। कुछ बच्चे तो इसलिए भी बोझा लादकर स्कूल ले जाते हैं कि क्या पता टीचर कब कौन-सी किताब मांग ले। और ये सब टाइम-टेबल होने के बावजूद है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में बच्चों के स्कूल बैग का औसत वजन 8 किलो होता है। एक साल में तकरीबन 200 दिन तक बच्चे स्कूल जाते हैं। स्कूल जाने और वहां से वापस आने के समय जो वजन बच्चा अपने कंधों पर उठता है, यदि उसे आधार मानकर गणना की जाए तो वह साल में 3200 किलो का वजन ढो लेता है। ये एक पीक-अप ट्रक के बराबर है।
जरा सोचकर देखिए, इतना भार जब बच्चा इतनी छोटी उम्र में उठा रहा है आगे चलकर जब उस पर पढ़ाई का भी अतिरिक्त भार पड़ेगा तो वो कैसे अपनी पढ़ाई और स्वास्य पर एकाग्र रह पाएगा। दिन-प्रतिदिन बढ़ती तरह-तरह की प्रतियोगिताओं की मांग उसे और भी मानसिक तनाव दे रही है। बस्ते के भार को झेलते-झेलते बच्चे कई तरह की गम्भीर बीमारियों के भी शिकार हो रहे हैं।
निजी स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों में बस्ते का बोझ फिर भी बहुत कम है। लेकिन निजी स्कूलों को तो बच्चों को कुछ ही दिनों में पढ़ाकू बनाना होता है, सो किताबों का भार लाद दिया जाता है। गाहे-बगाहे अभिभावक संघ द्वारा इसका विरोध किया भी जाता है पर उनकी आवाज अनसुनी ही रह जाती है। ज्यादा दूर क्यों जाते हैं, निजी स्कूलों में फीस बढ़ोतरी को लेकर पिछले दिनों जो हंगामा हुआ, वह भी बेनतीजा निकला। स्कूल अपनी में मस्त हैं, सरकार अपनी में।
ऐसा नहीं है कि बच्चों पर बस्ते का बोझ एक ही दिन में डाल दिया गया हो। पांचवे दशक तक ऐसा कुछ भी नहीं था। न मोटी-मोटी किताबें थीं, न भारी-भरकम बस्ते। ऐसा भी नहीं है कि तब के बच्चे पढ़ते ही नहीं थे। तब बच्चे पढ़ते भी थे और अच्छे नम्बरों से पास भी होते थे। लेकिन जब से हमारे बीच निजी स्कूलों ने अपना वर्चस्व कायम किया है, तब से बच्चों पर बस्ते का बोझ बढ़ता ही चला गया। हर मां-बाप की (अपवादों को छोड़ दें तो) यही तमन्ना होती है कि उसका बच्चा पढ़े निजी स्कूल में ही। अपना पेट काटकर वे उसे उसमें पढ़ाते भी हैं। जो सुविधा कभी खुद नहीं ली, अपने बच्चों को देते हैं। मगर बदले में उन्हें मिलता है, भारी बस्ते का बोझ और महंगी किताबें।
सबकुछ जानते-समझते हुए भी हम अपने बच्चों को बस्ते की बोझ की दुनिया में धकेल रहे हैं, यह उचित नहीं। हमें कोई-न-कोई मापदंड तो तय करना ही होगा। माना कि पढ़ाई जरूरी है, स्लेबस और कोर्स भी जरूरी है पर वो ऐसा तो हो कि बच्चे खुद को हल्का महसूस करें। बस्ता उठाते वक्त उनके कंधे न चरमराएं। वो किसी मानसिक व शारीरिक बीमारी का शिकार न बनें। जिस कल के लिए हम अनेक सपने देखते हैं, वो आज ही कहीं बोझ तले न दब जाए।