लखनऊ में कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर उमड़ी रिकॉर्ड भीड़ ने 2007 की याद दिलाई, लेकिन बीजेपी तारीफ और सपा पर हमले ने उठाए सवाल क्या बसपा 2027 के लिए असली पलटवार की तैयारी में है?
कांशीराम के 19वें परिनिर्वाण दिवस पर लखनऊ के कांशीराम स्मारक स्थल पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की महारैली ने एक बार फिर साबित कर दिया कि मायावती का जादू अभी बाकी है। पांच लाख से अधिक की दावा की गई भीड़, जो वीआईपी रोड से अवध चौराहा तक फैली नजर आई, ने न केवल विरोधियों के ‘होश उड़ा’ दिए, बल्कि 2007 के पूर्ण बहुमत वाली बसपा सरकार की यादें ताजा कर दीं। उस दौर की सामाजिक इंजीनियरिंग दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम-पिछड़े का गठजोड़ आज फिर दिखा, जब रैली में हर वर्ग के समर्थक नीले झंडे लहराते नजर आए। युवाओं और महिलाओं की भारी उपस्थिति ने यह संकेत दिया कि बसपा का कोर वोटबैंक अभी भी मजबूत है, और आगामी 2027 यूपी विधानसभा चुनावों में यह लहर तूफान बन सकती है।

रैली का माहौल जोशीला था। मायावती ने मंच से कांशीराम के सपने को दोहराया शोषितों को शासक बनाने का और कहा कि बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी, गठबंधनों से दूर। उन्होंने सपा और कांग्रेस पर ‘दोगलेपन’ का आरोप लगाया, खासकर PDA फॉर्मूले को निशाना बनाते हुए। ‘सत्ता में रहते PDA याद नहीं आता, लेकिन विपक्ष में महापुरुषों का सम्मान दिखाते हो’ यह तंज अखिलेश यादव के वोटबैंक पर सीधी चोट था। मंच पर मुस्लिम नेताओं (मुनकाद अली, नौशाद अली) और दलित चेहरों (आकाश आनंद, आनंद कुमार) की मौजूदगी ने बहुजन एकता का संदेश दिया। भतीजे आकाश आनंद की तारीफ और कार्यकर्ताओं को उनके साथ खड़े रहने की अपील ने उत्तराधिकार की अटकलों को भी बल दिया। यह भीड़ न केवल शक्ति प्रदर्शन थी, बल्कि संगठनात्मक ताकत का आईना 75 जिलों से लोग पैदल, बसों से पहुंचे, जो दर्शाता है कि बसपा का ग्रासरूट अभी जिंदा है।

लेकिन रैली की चमक के पीछे छिपे सवाल भी कम नहीं। मायावती ने योगी सरकार की तारीफ की स्मारकों के रखरखाव और कानून-व्यवस्था पर जिसे विपक्ष ने ‘सरेंडर’ करार दिया। सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई: क्या यह ED-CBI के डर से है, या रणनीतिक चुप्पी? दलित उत्पीड़न के हालिया मामलों जैसे रायबरेली में हत्या या सीजेआई पर जूते का हमला पर एक शब्द न बोलना भारी पड़ा। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे पूर्व सहयोगियों ने इसे ‘बीजेपी की मदद’ बताया, जबकि सपा समर्थक इसे ‘वोट कटवा’ रणनीति मान रहे हैं। रैली में बीजेपी पर नरमी ने सवाल उठाया कि क्या बसपा सत्ता की वापसी के बजाय विपक्षी एकता तोड़ने का हथियार बन रही है? 2024 लोकसभा में बसपा की करारी हार के बाद यह रैली संजीवनी की तरह लगी, लेकिन बिना ठोस मुद्दों पर हमले के यह केवल शोर ही साबित हो सकती है।
यह लहर बहुजन एकता की है, लेकिन दिशाहीन लग रही है। 2007 की सफलता सामाजिक न्याय और विकास पर टिकी थी। रोजगार, सुरक्षा, समावेशी नीतियां। आज बसपा को वही फॉर्मूला दोहराना होगा: न केवल भीड़ जुटानी, बल्कि मुद्दों पर आक्रामकता दिखानी। मायावती ने खुद कहा, ‘अब ज्यादा सक्रिय रहूंगी’ यह वादा अगर पूरा हुआ, तो 2027 में असली पिक्चर बाकी रह सकती है। अन्यथा, यह रैली केवल यादों की किताब में एक और अध्याय बन जाएगी। बहुजन समाज को मजबूत नेतृत्व चाहिए, जो सपनों को हकीकत बनाए, न कि सियासी खेलों में उलझाए। जय भीम!







