जिए चलो प्रकृति को
चाहता हूं समो लूं,पूरी प्रकृति,
हू बहू ,आत्मसात कर लूं
मन में ,और अपनी कविताओं में,
निर्मल नील गगन,धवल बादल,
पर्वत,नदियां,उनका कल कल
संगीत,जल, जल धार,
बहाव,और पर्वतों से गिर कर
जमीं से मिलने की चाह,
जलप्रपात,और इच्छाओं को बांधता
बांध,सूखे दरार वाले या हरे भरे खेत
वन,उपवन,फूल, पुष्प गंध,
पवन स्थिर,या बहती हवा
और ऊबड़ खाबड़ या सपाट रास्ते
और फूलो के विविध रंग भी,सभी कुछ,
किंतु ,
प्रकृति की प्रकृति कहां है,
किसी बंधन में बंधने की,
वह निर्बाध है,स्वतंत्र है,
उसका विस्तार असीमित है
ब्रज,जिए चलो प्रकृति को ,तुम्हारी
रुचि और प्रकृति के अनुरूप
- डॉ ब्रजभूषण मिश्र