- नवेद शिकोह
क़रीब 70% मीडिया कर्मियों का वेतन लगभग मज़दूरों की कमाई के बराबर है। इस वैश्विक संकट में तकरीबन जो आधे से ज्यादा भारत की आबादी बेरोज़गारी और भुखमरी के संकट से सहमी है उन मजदूर स्तर के पेशेवरों में मीडियाकर्मी/पत्रकार भी शामिल हैं। गरीब मजदूरों, रिक्शेवालों, ठेले वालों को सरकार की तरफ से आर्थिक लाभ और राशन का सहयोग मिल रहा है।
प्रधानमंत्री ने आज देश के नाम संदेश मे कहा कि कोई किसी को नौकरी से नहीं निकाले। हो सकता है पीएम के इस आदेश या आग्रह से लॉकडाउन खत्म होने के बाद मंदी की मार के बावजूद भी कल-कारखानों, फैक्ट्रियों इत्यादि में मजदूरो़ का काम या मेहनाताना बर्करार है।
लेकिन मंदी की मुसीबतों को लेकर इस वक्त सबसे ज्यादा बड़ी चुनौती मीडियाकर्मियों के सामने है। 40-40 पृष्ठों के ब्रॉड अखबार 12 पेज के हो गये हैं। इसका प्रसार कम होकर चौथाई हो गया है। आमदनी का मुख्य स्त्रोत सरकार और गैर सरकारी विज्ञापन आधे से भी कम हो गया है। कुल अखबारों में 95% स्थानीय अखबारों की हालत तो बेहद खस्ता है। क्योंकि स्थिति वश सरकार इन्ह़े आर्थिक सहायता रूपी विज्ञापन का सहयोग फिलहाल देने की स्थिति मे नहीं है।
क्षेत्रीय न्यूज चैनलों का यही हाल है। ब्रॉड न्यूज चैनल्स के कई महत्वपूर्ण बुलेटिन और कार्यक्रम बंद हो रही हैं। यहां भी छंटनी के संकेत मिलने लगे हैं। और ये सब मंदी की इब्तिदा में नज़र आ रहा है। इंतेहा काफी डरावनी होगी, इस बात की शंका है।
इस शंका के तहत मीडियाकर्मियो़ को भी अपने रोज़गार बचाने के लिए प्रधानमंत्री के उस बयान का सहारा लें जिसमें पीएम ने कहा है कि कोई किसी को नौकरी से नहीं निकाले। अब ये अग्निपरीक्षा मीडियाकर्मियो़ के ट्रेड यूनियन्स, तमाम पत्रकार संगठनों और पत्रकार नेताओं की है।