रामायण में एक बड़ा ही बोधप्रद प्रसंग है। यह पता चल जाने पर कि सीता लंका में रावण की अशोक वाटिका में वन्दनी हैं। श्री राम लंका विजय करके उन्हें मुक्त कराने के लिए अपनी सेना लेकर उस ओर कूंच करते हैं, लेकिन बीच में सागर आ जाता है। उसे पार करने के लिए सेतु का निर्माण किया जाता है।
अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार सब पुल बनाने में जुट जाते हैं। नल – नील उस कला में निष्णात पत्थरों को जमाते हैं। एक गिलहरी बालू के कणों उठाकर उठा- उठा कर लाती है। वानरों की सेना बड़ी तत्परता से सहायता करती है।
हनुमान जी स्फूर्ति तो देखते ही बनती है। वह बिजली की गति से पत्थर उठाकर लाते हैं और उन पर राम का नाम लिखकर पानी में डाल देते हैं। पत्थर एक दूसरे से जुड़कर पुल को आगे बढ़ाते हैं।
श्री राम सबको काम में संलग्न देखकर सबसे आगे आते हैं और उनका हाथ बंटाने के लिए पत्थर उठाकर लाते हैं, लेकिन यह क्या पानी में डालें उनके पत्थर तैरते नहीं डूब जाते हैं।
राम भगवान आवाक होकर उन्हें देखने लगते हैं। उनकी निगाह हनुमान जी पर जाती है। उनके पत्थर तो बराबर पानी पर तैर रहे थे। श्री राम ने विस्मित होकर पूछा ‘हनुमान जी यह माजरा क्या है कि तुम्हारे पत्थर पानी पर तैर रहे हैं और मेरे पत्थर पानी में डूब रहे हैं।”
स्वामी की ओर देखकर हनुमान जी बोले- ”प्रभु इसमें कोई रहस्य नहीं है
तब ऐसा क्या हो रहा है भगवान् राम ने पूंछा।
हनुमान जी कुछ देर मौन रहे फिर भाव विह्वल होकर बोले- ‘स्वामी जो आपके हाथ से छूटेगा वह बिना डूबे नहीं रहेगा।
इस प्रसंग का प्रतीकात्मक अर्थ है श्रीराम नीति के पर्यायवाची हैं। तात्पर्य है कि जो व्यक्ति नीति के मार्ग को छोड़ता है उसका पतन अवश्यंभावी है।