व्यंग्य/नवेद शिकोह
” दारू छोटे-बड़े का फर्क मिटाती है ”
बुढ़ापा, गुस्सा, ठंड या कुछ और… जो भी वजह हो, लखनऊ के इस वरिष्ठ पत्रकार के हाथ तेज़ी से कपकपा रहे थे।
कपकपाते हाथों से सामने वाले का गिरेबान पकड़ा और उसे पीछे ढकेलने की कोशिश करते हुए नामी पत्रकार महोदय बोले – तुम्हारे जैसे छोटे और फर्जी पत्रकारों ने पत्रकारिता का पेशा बदनाम कर दिया है। तुम लोगों की पत्रकारिता सरकारी विज्ञापन की लूटमार तक सीमित है।
ख़बर कभी लिखी नहीं.. क़ायदे के आखबार के ऑफिस का गेट तक नही देखा, और पत्रकार बनकर हर जगह घुस रहे हैं.. अधिकारियो और नेताओं के पीछे भाग रहे है.. सैल्फीबाजी कर रहे हैंं कम्बख्त।
हमारे ज़माने में हमारे पीछे बड़े-बड़े नेता और नौकरशाह भागते थे।
हमारे ज़माने में पत्रकारों से सरकारें कापती थीं।
हमारे ज़माने में हमारी खबरों से तूफान आ जाता था।
आज के दौर की पत्रकारिता को तुम फट्टरों ने गंदा कर दिया है। हमने अपने दौर में तुम जैसों को एनेक्सी मीडिया सेंटर जैसे स्थानों में घुसने तक नहीं दिया।
पत्रकारों का मुखौटा लगाये इस भीड़ को ना जाने किसने इतनी खुली छूट दे दी है !
लेकिन अब बस बहुत हो गया।
पत्रकारिता को कलंकित करने वाले फर्जी पत्रकार दूर हो जा मेरी नज़रों से… भाग यहां से …
गुस्से में कपकपाते हुए सामने वाले को एक बार फिर पीछे धक्का देने की कोशिश करते हुए ये वरिष्ठ और नामी पत्रकार खुद गिर जाते हैं। और बेहोश हो जाते हैं।
जिसे फर्जी पत्रकार कह कर वरिष्ठ और नामी पत्रकार फट्कार रहे थे वो मुस्कुराया। उसने अपनी जेब से अध्धी निकाली। गुस्सा करते-करते बेहोश हो चुके नामी पत्रकार के मुंह पर दारू की कुछ बूंदों का छीटा मारा। नामी पत्रकार अपनी जीभ से शराब की बूंदे चाटते हुए उठ गये। उन्हें होश आते ही उसका ख़्याल, चेहरा, भाव, व्यवहार.. सब बदल गया था। अब चेहरे पर क्रोध-कुंठा नहीं मुस्कुराहट थी।
बोले – मैं तो बस ऐसे ही गुस्से में ये सब कह.. नहीं-नहीं मज़ाक कर रहा था। तुम लोग ही तो सचमुच वाले..असली वाले पत्रकार हो। तुम बड़े और सफल पत्रकार हो। मैं तुम्हें सीएम से मिलवा दूंगा.. मैं तुम्हें पीएम से भी मिलवा सकता हूं। राहुल, मुलायम, अखिलेश सब मेरे मित्र हैं। माया भी मेरा सम्मान करती हैं।
मैं तुम्हें सारे बड़े पत्रकारों का ..
बस.. बस..बस.. कहते हुए सामने वाले ने फिर दारू का छीटा मारा और बोला-
ठीक है..ठीक है बताओं, हाफ से काम चल जायेगा या खंभा मगवाऊं !
दारू की बूंदों को फिर जीभ से चाटते हुए नामी पत्रकार बोले- खंभा ~~
और मुर्गा भी।
अब सब कुछ बदल चुका था।
छोटा-बड़ा, जूनियर-सीनियर, लिखने वाले- विज्ञापन वाले, छोटे अखबार वाले बड़े अखबार वाले….
सभी फासले मिट चुके थे।
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और दारू पीते पीते रात न जाने कब खत्म हो सुबह की सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ी तो लगा अब सोने का वख्त हो गया चलो फिर कल यही मिलते हैं।