- देवभूमि उत्तराखंड से एक बड़े सामाजिक सुधार का आग़ाज़
- कई बार व्यक्तिगत कानूनों के चलते भारतीय संविधान की मूल भावना न्याय और समानता होती है बाधित
राहुल कुमार गुप्ता
मानवता की कड़ी में आदिकाल से मानवीय समाज व धार्मिक सम्प्रदायों में समय-समय पर बदलाव होते आये हैं। बदलाव की यह प्रक्रिया मानव हितों और समानता के शिखर को पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। इस शिखर को पाने की राह में अनगिनत संघर्षों का दावानल भी है। फिर भी मानवता के मुकाम तक पहुंचने के लिए बहुत से लोग ऐसे संघर्षों में अपना सर्वस्व कुर्बान करते आये हैं। इन राहों पर चलने के लिए धर्म और पंथ भी समय समय पर आगे आये। धर्म या पंथ पुराने वक्त के कानून ही हैं जो लोगों को मानवता का पाठ सिखा कर मानवीय समाज में खुशियों और अभय का वातावरण देना चाहते हैं।
समस्या तब होती है जब धर्म को धर्म के मूल (मानवता) से ज्यादा तवज्जो दे कर रूढ़ियों में फंसे लोग बंधे रह जाते हैं। समयानुसार उसमें बदलाव की संभावना को नकारने लगते हैं। धर्म के आगे मानवता को ही अपना दुश्मन मानने लगते हैं।
भारत में सनातन धर्म अपने अस्तित्व से लेकर आज तक लगातार कुछ न कुछ सीखता और सुधार करता आया है, गलत रूढ़ियों की सख्त बेड़ियों को तोड़कर वो मानवता की राह में निरंतर आगे बढ़ता रहा है। भारतीय समाज में समानता की भावना का समावेश भारतीय संविधान के मूल में है। और कुछ ऐसे ही मूल कारकों को ध्यान में रखकर संविधान निर्माताओं ने मूलअधिकार बना कर उसे भाग 3 में रखकर उसे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के संरक्षण में रखकर उन्हें इन मूलअधिकारों का संरक्षक बना दिया। कुछ बातें विरोधाभासी भी हैं कुछ अनुच्छेदों में! किन्तु विरोधाभास में जो समता के न्यायसंगत हो उसे ही वरीयता प्राप्त होना चाहिए। भारत में सभी मामलों में संसद और मूल अधिकार के मामलों में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय ही सर्वेसर्वा हैं। कुछ मामले कई बार वोट बैंक के चलते उचित न्याय से वंचित रह जाते हैं और वंचित होते आये हैं। इन्हीं में से भारत के अंदर एक सबसे बड़ा मुद्दा है भारतीय नागरिक संहिता (यूनीफार्म सिविल कोड)! अभी हाल ही में उत्तराखंड आजादी के बाद का भारत का प्रथम राज्य है जो यूसीसी लागू करने जा रहा है। इस यूनीफार्म सिविल कोड की मांग तो ब्रितानी हुकूमत के समय से ही शुरू हो गयी थी किन्तु प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) के कारणों को समझने के बाद ब्रितानी हुकूमत ने धार्मिक रीति-रिवाजों को छेड़ने के बजाये अपनी हुकूमत पर ज्यादा फोकस रखा।
अपराधों के लिए 1860 में भारतीय दंड संहिता तो बना दी गयी लेकिन नागरिकों को अपने धर्म के अनुसार शादी, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति में बंटवारा और तमाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों को व्यक्तिगत दायरे में रख दिया गया। आजादी के बाद वोटबैंक की नीति ने इस यूनीफार्म सिविल कोड को लागू होने को लेकर कोताही बरती जा रही है। संवैधानिक पेंचों का हवाला देकर इस न्याय संगत कानून से सदा ही किनारा किया जाता रहा। किन्तु रूलिंग पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने स्वहित को त्याग समय-समय पर इस यूसीसी के लिए अपने प्रयास करती रही। अपने घोषणा पत्र में यूनीफार्म सिविल कोड को जगह दी। लेकिन दो पूर्ण बहुमत सरकार के बावजूद उसने कुछ कोशिशें की लेकिन अभी उस ढंग से नहीं जिस ढंग से धारा 370 से काश्मीरियों को निजात मिली। देश में किसी भी समाज के लोगों में लैंगिक असामनता का शिकार कोई बन न सके, इसके लिए यह सिविल कोड जरूरी है। विपक्ष वोटबैंक की राजनीति को लेकर इसे मूलअधिकार में प्रदत्त धर्म की स्वतंत्रता पर हमला बोलता आया है। वो जब सरकार में था तब भी और जब विपक्ष में है तब भी। न्याय और समानता की बात करने वाले, धार्मिक मामलों में आकर कैसे शिथिल पड़ जाते हैं यह ब्रितानी हुकूमत से लेकर अब तक की राजनीति में इस यूनीफार्म सिविल कोड को लेकर देखा जा सकता है।
भारत में अंग्रेजों का क्षेत्र बड़ा व्यापाक था और 1857 की रक्त क्रांति का उन पर बड़ा गहरा प्रभाव रहा इस कारण वो आपराधिक कानून तो ले आये लेकिन यूसीसी ला पाने पर असहज रह गये। इधर 1867 में पुर्तगाली नागरिक संहिता पुर्तगालियों के अधीन आये क्षेत्र गोवा में लागू कर दिया गया जिसे गोवा सिविल कोड या गोवा फैमिली कोड कहा गया। यहां सभी धर्म के लोगों के लिए एक ही नागरिक कानून बनाया गया है। यह इसलिए आसानी से बन सका की राज्य छोटा था।
अंग्रेजों ने रक्त रंजित जो क्रांति की ज्वालायें देखी थीं उनके मुख्य कारणों पर धार्मिक मामलों से छेड़छाड़ के मामले के थे जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत ने किसी के धर्म पे दखल अंदाजी से किनारा कर लिया। लेकिन सुधार चाहने वालों के लिए उन्होंने सुधार की प्रक्रिया अपनाकर कानून का रूप भी दिया। हिंदू समाज में सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कई हिंदू समाज सुधारक आगे आये और अपने ही समाज के लोगों का विरोध सहा लेकिन अंग्रेजों ने इन समाज सुधारकों के प्रयासों को कानून का रूप देकर हिंदू समाज में प्रचलित तात्कालीन सामजिक बुराइयों को दूर किया। उस समय रूढ़िवादी लोगों को लग रहा था कि इससे हिंदू धर्म ही खतरे में आ जायेगा लेकिन लोगों के लगने से धर्म का मूल खत्म हो जाये तो धर्म कैसा¬? सभी धर्मों का सार मानवता है, मानवता को बढ़ाने वाले कारक कभी धर्म विरोधी हो ही नहीं सकते। ब्रितानी हुकूमत ने नागरिक मामलों में उतना ही हस्तक्षेप किया जितने को उसकी जरूरत समझ आयी, उसे न्याय और समता को गौड़ रखना पड़ा। यही बातें आजादी के बाद की सरकारों की हैं।
नागरिक कानून बनाने की जगह व्यक्तिगत कानून बना दिया गया जो आज तक अपने कानून अनुसार अपने फैसले सुनाते हैं, कई बार इनके फैसलों और भारतीय संविधान के संरक्षकों के फैसलों के बीच विरोधाभास भी उत्पन्न होता है। यहां पर माननीय उच्चतम और उच्च न्यायालय भी गौड़ हो जाते हैं।
- ईसाइयों के लिए ,ईसाई मैरिज एक्ट (1872)
- मुस्लिमों के लिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट (1937)
- पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (1937)
हिन्दू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम,1956, हिंदू दत्तक और भरण पोषण अधिनियम 1956, के अन्तर्गत हिन्दू, जैन, बौद्ध, और सिख धर्म के लोगों के रखा गया है।
हिन्दू कोड बिल पर भारतीय संविधान का ज्यादा प्रभाव है, क्योंकि यह बिल संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 21 के आधार पर बनाया गया था, जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात करते हैं। बाबा साहब भीमराव जी ने इस बिल को तैयार किया था, जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म में महिलाओं और निम्न वर्ग के अधिकारों की रक्षा करना था तथा उच्च वर्ग के विशेष अधिकारों को समाप्त करना था। इस कोड बिल का बहुत विरोध भी हुआ जिसके कारण बाबा साहब ने अपने मंत्री पद से इस्तीफा भी दिया। हिन्दू कोड बिल को लागू होने में 8 साल का समय लग गया।
बाबा साहब ने इस विषय को लेकर कहा कि-
“मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि किसी धर्म (मजहब) को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए। ऐसे में तो धर्म, जीवन के प्रत्येक पक्ष पर हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से रोकेगा। यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिये मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है। यह स्वतंत्रता हमे इसलिये मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में जहाँ हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है वहाँ वहाँ सुधार कर सकें।“
लेकिन अन्य पर्सनल लॉ को उनके धर्मों के अनुसार ही मान्यता दे दी गयी। ऐसे पर यहां सवाल यह उठता है कि बहुसंख्यकों की नागरिक कानूनों पर भारतीय संविधान का ही पुट ज्यादा है जबकि अल्पसंख्यकों के नागरिक कानून पर व्यक्तिगत कानून और उनके धर्म का ही पुट ज्यादा है। अब सवाल यहां यह उठता है कि क्या वास्तव में भारत धर्मनिरपेक्ष देश है या परोक्ष रूप से धर्म विशेष देश है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट भी उन भारतीय नागरिकों को न्याय और समता देने में असर्मथ नजर आता है जो अपने पर्सनल लॉ से बंधे हैं। तमाम संगठन अपने पर्सनल लॉ का हवाला देकर संविधान की मूल भावना को तार-तार कर देते हैं।
बहुत से केस ऐसे हैं जिनके आगे उच्च्तम और उच्च न्यायालय ने अपने आप को बेबस पाया है। राजीव गांधी सरकार में शाह बानो केस इसका बड़ा उदाहरण है। सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो को गुजारा भत्ता देने के लिए फैसला सुनाया लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं के लिए इसकी अनुमति नहीं है इसलिए कई मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया तो राजीव गांधी सरकार ने विधेयक पास करा कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ही रोक लगा दी। इस केस के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट ने एक समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। फिर सरला मुद्गल 1995, शायरा बानो 2017, जोसेफ शाइन 2018 आदि कई केसों में समय-समय पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। भाजपा शासित प्रदेशों में इस एक समान कानून के लिए कुछ सुगबुगाहट जरूर शुरू हुई है। उत्तराखंड राज्य ने तो यह लागू कर दिया। 9 नवंबर 2024 से समानता का यह कानून इस राज्य पर लागू हो जायेगा। फरवरी 2024 को उत्तराखंड विधानसभा में यूसीसी विधेयक पारित करा कर इसे राष्ट्रपति जी के पास भेजा गया। क्योंकि इससे संबंधित विषय समवर्ती सूची में आते हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी ने इस विधेयक पर 13 मार्च 2024 में अपनी सहमति प्रदान कर दी।
समानता का यह कानून अभी तक अपनी मुख्य धारा में क्यों नहीं आ पाया। वजह बहुत सी हैं लेकिन मुख्य वजह वोट बैंक की राजनीति भी है। संविधान सभा में भी इस महत्वपूर्ण विषय के लिए बहस हुई। इसके पक्ष में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी आदि शामिल थे। तथा विपक्ष में मुख्य रूप से नजीरूद्दीन अहमद और मोहम्मद इस्माइल खान आदि सम्मिलित थे।
पक्ष में कहा गया इससे समानता और न्याय प्रबल होंगे। महिलाओं को उचित अधिकार मिल सकेगा। धर्मनिरपेक्षता बलवती होगी। व्यक्तिगत कानूनों को धार्मिक विचारों से अलग करेगी और एकीकृत राष्ट्रीय पहचान में अतुलनीय वृद्धि होगी। विपक्ष में कही गयी बातें आज भी वही हैं कि धार्मिक स्वायत्तता पर हस्तक्षेप होगा, भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं की विविधता में बाधा उत्पन्न होगी, सामाजिक अशांति बढ़ सकती है।
यह भी संदेह है कि विविधता में एकता प्रदर्शित करने वाला विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश अपनी विविधता खो देगा। बहुत से जानकार कहते हैं कि इसमें सांविधानिक पेंच भी फंस सकते हैं। नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 44 को धर्म की स्वतंत्रता और संरक्षण जैसे मूलअधिकार वाले अनुच्छेदों 25-28 के ऊपर नहीं रखा जा सकता। किन्तु कुछ जानकार लोग संविधान की मूल भावना और मूल अधिकार का ही हवाला देकर बताते हैं कि इसमें तनिक भी सांविधानिक पेंच नहीं फंस रहे हैं।
एडवोकेट सुनील पांडेय महासचिव तहसील बार एसोसिएशन बबेरू ने जानकारी साझा की कि यह सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति का विषय है। संविधान की मूल भावना और आत्मा उसकी समानता और न्याय पर आधारित है तथा धार्मिक स्वतंत्रता और संरक्षण के मूल अधिकार के अनुच्छेदों में ही राष्ट्र पर धर्म की व्यापकता रोकने के अधिकार भी दिये हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25(3) में कहा गया है कि राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के हित में अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म के अभ्यास के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। राज्य किसी भी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित करने के लिए कानून भी बना सकता है जो धार्मिक अभ्यास से जुड़ी हो सकती है। कोरोना काल में भी इसी अनुच्छेद का प्रयोग कर सभी धार्मिक स्थल व आयोजन बंद करा दिये गये थे। ऐसी स्थितियों में धर्म की स्वतंत्रता का मूल अधिकार आहत हुआ नहीं माना जाता।
अगर एक समग्र दृष्टि में देखा जाये तो यह यूसीसी भारतीय अल्पसंख्यक महिलाओं के हितों के उद्देश्यों की रक्षा करने वाला है। मानवाधिकार, मानवता, समानता, और न्याय को उचित दिशा प्रदान करने वाला है। हां! अधिकतर आदिवासियों में महिला प्रधानता और उनकी विशेष विविधताएं इस कानून से जरूर बाधित होंगी। उन्हें शिक्षित और जागरूक कर धीरे-धीरे इस कानून के तहत सम्मिलित किया जा सकता है लेकिन जो समाज जागरूक हैं उन्हें राष्ट्र की प्रगति में साथ देना चाहिए।
बहुत से मुस्लिम देश ऐसे हैं जहां मुस्लिम पर्सनल लॉ नहीं है या हैं तो सीमित हैं यहां उस देश का कानून ही सर्वेसर्वा है। तुर्की, तुनीशिया, अल्बानिया, बोस्निया और हर्जेगोविना, कोसोवो, इंडोनेशिया, मालदीव आदि।
भारत में कई मुस्लिम संगठन यूसीसी के पक्ष में हैं, लेकिन कुछ प्रमुख संगठन इसके विरोध में भी हैं। पक्ष में मुस्लिम वुमेन्स राइट्स नेटवर्क, सेंटर फॉर इंसाफ, मुस्लिम इंटेक्चुअल फोरम, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन। विरोध में जमात-ए-इस्लामी हिंद, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत जैसे कई संस्था यूसीसी को भारत की विविधता और धर्म की स्वतंत्रता पर प्रहार बताया है।
इधर इस महत्वपूर्ण विषय पर भारत के विधि आयोग ने समय-समय पर इसके प्रभावों को लेकर कुछ टिप्पणियां दी हैं।
21 वाँ भारतीय विधि आयोग जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान थे। इस आयोग ने बताया कि इस समय यूसीसी लागू नहीं किया जा सकता, उन्होंने विभिन्न समुदायों से संबंधित विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के भीतर सुधारों का सुझाव दिया है। इस आयोग ने कहा है कि सभी धर्मों के अंतर्गत न्याय और समानता को महत्व देते हुए अपने-अपने पर्सनल लॉ में ही संशोधन कर लें।
22 वें भारतीय विधि आयोग जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी हैं। इस आयोग ने यूसीसी पर एक परामर्श पत्र जारी किया है, जिसमें इस मुद्दे पर जनता से प्रतिक्रिया माँगी गई है। धार्मिक संगठनों, कानूनी विशेषज्ञों, नीति निर्मताओं और सिविल सोसाइटी समूहों सहित आबादी के विभिन्न वर्गों से यूसीसी की व्यवहार्यता,निहितार्थ और संभावित ढांचे के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है। इसके बाद ही केंद्र सरकार इस गंभीर और विषय पर अपने कुछ कदम उठा सकती है।
इधर राज्यों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी 9 नवंबर 2024 को यूसीसी पूरे राज्य में लागू करेंगे। इस कानून से आदिवासियों को अलग रखा गया है। अल्पसंख्यक महिला हितों को लेकर और लिव इन रिलेशनशिप की अव्यवस्थाओं में सुधार करने के उद्देश्य से यह यूनीफार्म सिविल कोड देश व देश के अन्य राज्यों के लिए प्रणेता का कार्य करेगा।