यह तय है कि अगले बरस
रावण और ऊंचा हो जाएगा
वह अकेला शिखर पर खड़ा पूरी बस्ती पर
महाकाय नजर डालता है अपने दसों चेहरों बीसों आंखों से
उसे मालूम है लाखों की भीड़ उसे ही देखने उमड़ती है
लिपस्टिक पाउडर का मेक-अप किए
सस्ती औरतों या नपुंसकों जैसे लगते राम-लक्ष्मण के लिए नहीं
जो दशहरा मैदान में सासंद विधायक मेयर कलक्टर
एसपी के बीच पहचाने भी नहीं जाते
रावण का अग्नि-वध करने वाला बाण
अक्सर फोटो खिंचाने के बहाने
इन्हीं में से किसी से चलवा दिया जाता है
रावण को जलने की कोई चिंता या लज्जा नहीं
उसे मालूम है लोगों में सिर्फ उसके दहन से पहले पहुंचने की होड़ रहती है
किसी को याद नहीं रहता किसी भी दशहरे के राम का चेहरा
लक्ष्मण की तो और भी अवहेलना होती है
लेकिन सब तुलना करते हैं
पिछले साल के रावण की इस नए वाले से
और खुश होते हैं कि यह उससे बेहतर है
दस आननों और बीस चक्षुओं से देखता है वह
लपटों में गिरते हुए
हर नगरी उसे अपनी सोने की लंका जैसी लगती है
वह साल भर बनता रहता है
अगले वर्ष फिर जीवित खड़ा हो जाता है
एक बार फिर देखता है और भी दूर तक और नीचे
अपने भक्तों सेनाओं या कीट-पतंग जैसे चपटे मानवों को
वह जानता है उसे आज फिर अपना मूक अभिनय करना है
पाप पर पुण्य की विजय का
फिर और यथार्थता से जल जाना है
अगले वर्ष फिर अधिक उत्तुंग भव्यतर बनकर
लौटने से पहले
विष्णु खरे की एक कविता
‘बढ़ती ऊंचाई’ से एक अंश
अविनाश मिश्र की वॉल से