एक तिनके को अपाहिज़ व्यथा तरसी उम्र भर
पल रहा विश्वास यों अनुभूतियों के गाँव में ।
दीप जैसे जल रहा हो आँधियों के गाँव में ।
क्या व्यवस्था ? है मछेरों का लगा पहरा जहाँ –
केचुओं ने घर बनाये मछलियों के गाँव में ।
जो पराया था सगे से भी कहीं बढ़कर हुआ,
किन्तु अपनापन छला सम्बन्धियों के गाँव में ।
एक तिनके को अपाहिज़ व्यथा तरसी उम्र भर ,
जी रही लेकिन ख़ुशी बैसाखियों के गाँव में ।
कुछ उपेक्षा, कुछ घुटन, बेरोज़गारी – मुफ़लिसी,
क्या यही ‘कुछ’ रह गया उपलब्धियों के गाँव में ।
जो कला की चाँदनी से जगमगाते विश्व को,
भूख का नर्तन दिखा उन शिल्पियों के गाँव में ।
-कमल किशोर ‘भावुक’