व्यंग: अंशुमाली रस्तोगी
‘इतनी भीषण मंदी है और तुम मंदी पर कविता लिख रहे हो! लानत है तुम पर। तुम्हें यह कविता नहीं लिखनी चाहिए। मैं क्या मर गई हूं मुझ पर कविता नहीं लिख सकते।’ बीवी ने डांट पिलाई।
‘इतना बिगड़ने की क्या जरूरत है। कविता मंदी पर ही तो लिख रहा हूं, पराई स्त्री के हुस्न पर थोड़े।’ मैंने भी जवाब दे डाला।
‘देख नहीं रहे, चारों तरफ मंदी के कारण त्राहिमाम-त्राहिमाम मचा है। नौकरियां जा रही हैं। जीडीपी खस्ताहाल हो गई है। ऑटो सेक्टर बैठा जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट लगी है। और तुम मंदी पर कविता लिख रहे हो। बड़े बेशर्म हो।’ बीवी ने चेताया।
‘तो फिर तुम ही बताओ, कविता लिखने के अतिरिक्त और मैं कर ही क्या सकता हूं। मैं कवि हूं कवि; कोई एक्टिविस्ट नहीं। मैं सड़कों पर सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं कर सकता। नारे नहीं लगा सकता। हां, कलम चला सकता हूं। बस, वही चला रहा हूं। वही चलाता रहूंगा।’ बीवी को समझाते हुए कहा।
‘कवि? तुम क्या खाक कवि हो! जो कवि टेढ़े वक़्त में आवाम के साथ खड़ा नहीं हो सकता वो काहे का कवि। तुम तो कवि के नाम पर कलंक हो, कलंक। देश में कवियों ने बड़ी-बड़ी क्रांतियां कर डाली हैं। कुछ पता भी है तुम्हें।’ बीवी ने पुनः लताड़ लगाई।
‘मंदी है तो इसमें कवि क्या करे? यह तो सरकार और वित्तमंत्री के देखने का काम है। क्या तुमने आरबीआई के गवर्नर साहब का बयान पढ़ा नहीं कि मंदी से घबराने या हताश होने की जरूरत नहीं। हौसला रखें। आई बला जल्द टल जाएगी। ऐसा ही तो वित्तमंत्री कह रही हैं कि न किसी की जॉब जाएगी, न कोई निकाला जाएगा। फिर काहे को घबराना। और तुमने देखा नहीं, वित्तमंत्री के कॉरपोरेट टैक्स घटाने के बाद स्टॉक मार्केट कहां पहुंच गया।’ बीवी को और स्पष्ट किया।
‘तुम गवर्नर या नेता की बात पर यकीन कैसे कर लेते हो? उनकी आधी बातें तो जुमला होती हैं। क्या प्रधानमंत्री जी ऐसे ही बनाएंगे देश को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था? तुम समझ नहीं रहे, स्थिति बहुत भयावह है। अब तो पूर्व प्रधानमंत्री ने भी चेता दिया है।’ बीवी ने बोलना जारी रखा।
‘देखो, मैं सब समझ रहा हूं। मंदी हमारे लिए नई थोड़े है। क्या तुम 2008 को भूल गईं। तब भी तो छाए थे देश पर मंदी के बादल। उस समय भी काफी हो-हल्ला काटा गया था। लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।’ निश्चिंत होकर कहा।
‘अरे वाह! ये क्या बात होती है? तब की मंदी से अब की मंदी को क्यों कम्पेयर कर रहे हो? मंदी चाहे जैसे भी आए जन-सामान्य के लिए हानिकारक होती है। तुम यह मान क्यों नहीं लेते कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर फेल हो चुकी है। थोड़ी-बहुत राहत दे देने भर से कुछ नहीं होगा।’ बीवी का स्वर सख्त था।
‘इतनी बड़ी-बड़ी बातें मेरी समझ से तो बाहर हैं प्रियवर। मैं ठहरा कवि। कविता लिख सकता हूं। किंतु देश की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकता। यह मेरे बस से बाहर की बात है।’ अपने सीमित ज्ञान को स्पष्ट किया।
‘तो क्या मैं यह मान लूं, तुम्हारी संवेदनाएं देश और इसके नागरिकों के साथ नहीं? तुम अपनी ही सोचते हो सिर्फ। माना कि तुम देश की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकते पर सरकार के विरुद्ध आवाज तो उठा ही सकते हो। सड़कों पर धरना-प्रदर्शन तो कर ही सकते हो। सरकार को चेता तो सकते हो।’ बीवी का गुस्सा जाहिर था।
‘अच्छा, अच्छा ठीक है। सोचूंगा इस बारे में। अभी मुझे जरा मंदी पर लिखी जा रही कविता को पूरा करने दो। अभी मौका है, छप जाएगी। क्या पता छपते ही वायरल भी हो जाए। इस बहाने मुझे भी बड़ा कवि मान लिया जाए। मेरी भी पूछ साहित्य समाज के बीच बढ़ जाए। शायद कविता का कोई ऊंचा पुरस्कार मेरी भी झोली में आ गिरे। वक़्त बदलते देर नहीं लगती जानेमन।’ इतना कह बीवी से जारी बहस का मैंने पटाक्षेप किया और कविता पूरी करने में जुट गया।