त्योहारों का मौसम है,
सब खड़े हैं त्योहारी के लिए।
खुद के पास ही कुछ नहीं,
कैसे जलाएं उनके घर के दीए।
अरमान तो बहुत हैं दिल में,
लेकिन जी रहा हूं खून का घूंट पीए।
क्या करें, क्या ना करें,
इसी सोच में चला जा रहा हूं जिंदगी जिए।
जब देखता हूं ऊंचे भवन,
तो मन में उठता है एक ज्वार।
काश! मैं भी बना लेता ऐसा
यह सोचता रहता हूं बार-बार।
जब देखता हूं जगमगाते दीप
तो सोचता हूं, गरीबी का मैं हूं कसूरवार।
फिर देखता हूं सड़क किनारे
उन लाचारों को तो सिहर जाता मन।
फिर कहता हूं मन से, न देखो ख्वाब,
हो जाओ तूं खूद से खबरदार।
आखिर ऊंचे मंजिल न सही,
एक छोटा सा घर तो है अपना,
झुमका न सही,
कुछ तो पूरा हो जाता है बीवी सपना।
जो सड़क पर सो रहे,
नौनिहाल को गोदी में लिए
चेहरे पर जल रहे मुस्कान के दीए।
फिर हमें तो बहुत कुछ दिया है उसने,
फिर हम आंसू बहा रहे हैं किसलिए।
- उपेन्द्र नाथ राय