
देश के हाईवे अब सफ़र के नहीं, लाशों के रास्ते बनते जा रहे हैं। ताज़ा घटना मध्यप्रदेश के शिवपुरी–इंदौर मार्ग की है, जहाँ अशोकनगर के पास एक बस में अचानक आग लग गई। संयोग से घटना का समय नींद का नही था लिहाजा यात्रियों की जान तो बच गई, पर उनका समान,लगेज राख में बदल गया।मंजर सोचिये,आग में धू धू करती जलती हुई बस ओर यात्रियों में कुछ पल उसके भीतर होने की कल्पना…?घटना सिर्फ यही नही बल्कि ठीक इसी तरह की जिसमे कुछ दिन पहले आंध्रप्रदेश के कुरनूल में 21 लोग बस में जिंदा जल गए थे। इससे पहले राजस्थान के जैसलमेर में 20 यात्रियों की बस में जिंदा जलकर मौत हुई थी। हादसों की श्रंखला सिर्फ ताजा माह की ही नही है बल्कि इससे पूर्व 2021 में महाराष्ट्र के बुलढाणा में भीषण आग ने 26 लोगों को ज़िंदा जला दिया था, जबकि 2013 में आंध्रप्रदेश के महबूबनगर हादसे में 45 लोग एक ही बस में जिंदा जलकर भस्म हो गए थे। ताजा एक महीने में ही स्लीपर बसों में लगी आग से 40 से ज़्यादा यात्रियों की जान जा चुकी है। हर हादसे के बाद कुछ दिन का हल्ला होता है, फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाती है,ओर इसके बाद लाशों पर लिफाफों का वजन भारी पड़ जाता है और सब कुछ पहले की ही तरह चलने लगता है।
आखिर हादसों पर मौन क्यों…?
स्लीपर बसें अब “सफ़र का साधन” नहीं रहीं, बल्कि “चलती फिरती मौत का इंतज़ाम” बन चुकी हैं। RTO नियमों को खुलेआम ताक पर रखकर इनका संचालन किया जा रहा है। ऑल इंडिया परमिट के नाम पर ये बसें रोज़ एक ही मार्ग पर दौड़ाई जा रही हैं, जबकि मोटर व्हीकल अधिनियम, 1988 की धारा 88(12) और सेंट्रल मोटर व्हीकल रूल्स, 1989 के अनुसार, ऑल इंडिया परमिट वाली बसें किसी एक राज्य या मार्ग पर नियमित रूप से नहीं चल सकतीं। यह परमिट केवल लचीले अंतरराज्यीय संचालन के लिए होता है, लेकिन सिस्टम की मिलीभगत से इन बसों को रोज़ाना तय रूट पर चलाया जा रहा है। RTO अधिकारी सब जानते हुए भी आँखें बंद किए हुए हैं, क्योंकि यह खेल केवल सड़क पर नहीं, फाइलों के अंदर भी चलता है।
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इन बसों का तकनीकी ढाँचा खुद खतरे का सबब है। निचले हिस्से को खोखला करके लगेज स्पेस बना दिया गया है, जहाँ यात्रियों का सामान कई बार ज्वलनशील वस्तुएँ भी ठूँस दी जाती हैं जो छोटी सी घटना को भी बड़ा कर देती है। कई बार इसी हिस्से में बिजली की वायरिंग गुज़रती है। एक छोटी-सी चिंगारी पूरे वाहन को आग का गोला बना देती है। ऊपर स्लीपर बर्थ इतने तंग बनाए जाते हैं कि हवा का प्रवाह तक नहीं रहता। अधिकांश बसों में इमरजेंसी एग्ज़िट नहीं होते । बस एक ही दरवाज़ा आगे होता है, जो आग लगने पर सबसे पहले लपटों में घिर जाता है। परिणाम यह कि यात्रियों के लिए बस “चलती चिता” में बदल जाती है।

AC फिटिंग सस्ती जुगाड़ से होती है जिनकी सर्विसिंग महीनों तक टाली जाती है, और कई बार बसें ओवरलोड चलाई जाती हैं। ड्राइवरों से लगातार 14–18 घंटे तक बस चलवाई जाती है, जिससे थकान और ध्यान की कमी से हादसे बढ़ते हैं। हर बार हादसे के बाद कारण “शार्ट सर्किट या तकनीकी खराबी “का बता दिया जाता है पर असल सच्चाई यह है कि यह “तकनीकी खराबी” नहीं, “प्रशासनिक भ्रष्टाचार” है। फिटनेस सर्टिफिकेट बिना वास्तविक निरीक्षण के जारी किए जाते हैं, फायर सेफ्टी उपकरण केवल दिखावे के लिए रखे जाते हैं, और विभागीय जांच के नाम पर औपचारिकता निभाकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है।
जरूरत है कि अब इस पूरे सिस्टम को झकझोरा जाए। केवल हादसों पर दुख जताने या जांच बिठाने से काम नहीं चलेगा। स्लीपर बसों की सुरक्षा के लिए अब ठोस कदम उठाने होंगे ।
हर बस में आगे और पीछे दो आपात दरवाजे अनिवार्य किए जाएं, खिड़कियों के कांच आपात स्थिति में खुलने वाले हो न कि पूरी तरह से बंद। निचले हिस्से की बायरिंग लगेज सेक्शन से पूरी तरह अलग हो, फायर डिटेक्टर और ऑटोमैटिक स्प्रिंकलर सिस्टम लगाए जाएं। बस की फिटनेस हर छह महीने में असली निरीक्षण के बाद ही मिले, और ऑल इंडिया परमिट वाली बसों के रूट की GPS मॉनिटरिंग हो ताकि दुरुपयोग रोका जा सके।
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साथ ही, परिवहन विभाग के उन अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए जो जांच के नाम पर आँख मूँद लेते हैं। यदि एक हादसे के बाद एक भी जिम्मेदार अधिकारी पर हत्या के समान अपराध दर्ज कर कार्रवाई की जाए, तो आने वाले हादसे रुक सकते हैं। यह केवल प्रशासनिक नहीं, नैतिक जिम्मेदारी का सवाल है क्योंकि हर मृत यात्री किसी परिवार का सपना होता है।
सरकार को चाहिए कि स्लीपर बसों के लिए नए राष्ट्रीय सुरक्षा मानक बनाए जाएं, जो यूरोपीय देशों की तरह अनिवार्य हों। चीन, फ्रांस, और ब्रिटेन जैसे देशों ने ऐसे हादसों के बाद स्लीपर बसों पर या तो बैन लगाया या बहुत कड़े सुरक्षा मानक लागू किए। भारत में यह ढील और मुनाफाखोरी ही हर बार नई जानें लील रही है।
अब वक्त आ गया है कि “फिटनेस सर्टिफिकेट” केवल कागज़ नहीं, जीवन की गारंटी बने। जब तक RTO दफ्तरों की सांठगांठ नहीं टूटेगी, तब तक सड़कें जलती रहेंगी और यात्रियों की चीखें हवा में खोती रहेंगी।
हादसे किस्मत नहीं, नीतिगत नाकामी और लालच की उपज हैं। हर राख के ढेर में जलती है उस व्यवस्था की गैरजिम्मेदारी, जिसने इंसानी ज़िंदगी को व्यापार बना दिया है। अब फैसला सरकार को लेना है कि या तो इन चलती फिरती मौत की गाड़ियों को सुधारे, या सड़क से हटा दे। क्योंकि सफ़र सिर्फ पहुँचने के लिए नहीं होता बल्कि सुरक्षित तरीके से ज़िंदा पहुँचने के लिए भी होना चाहिए जिसकी जबाबदेही सरकार की है….।







