जो फेसबुक पर है, वो ‘निजी’ नहीं। यह बात अलग है कि आप उसमें निजता के सूत्र तलाशते रहें। निजता पर सफाई देते रहें। सफाई दे देने भर से निजता ‘दुल्हन’ नहीं हो जाएगी। कि, उसे सिर्फ घूंघट में रखना है।
मैं ऐसा मानता हूं, फेसबुक पर जो समाज है, वो पढ़ा-लिखा है। निजता और सार्वजनिकता के अंतर को समझता है। उसे पता है कि यहां क्या डालना चाहिए, क्या नहीं। लेकिन जब मैं इसी पढ़े-लिखे समाज को फेसबुक पर अपने ‘निजी जीवन’ व ‘निजी पलों’ की चोली खुद उतारते हुए देखता हूं तो मुझे मंटो का कहा याद आता है कि ‘मैं इस समाज की चोली क्या उतारूंगा…’।


कभी-कभी नहीं अक्सर ही मुझे मंटो, इस्मत और खुशवंत जैसे लोग सही ही नहीं, बहुत सही लगते हैं। इन्होंने अपने लेखन में न केवल समाज बल्कि दुनिया को ‘आईना’ दिखाया है। लेकिन यही समाज उन्हें ‘अश्लील’ कहकर खारिज करता है।
फेसबुक पर निजता का हल्ला मत माचाइए। हल्ला मचाने से पहले अपने गिरेबान में झांककर देखिए कि आप खुद क्या कर रहे हैं। अपने हर जरूरी, गैर-जरूरी पलों की तस्वीरें यहां डालना कितना उचित है, मैं आज तक नहीं समझ पाया। जन्मदिन से लेकर हनीमून तक यहां मनाया जाता है। उन तस्वीरों को यहां डाल आप साबित क्या करना चाहते हैं, यही कि लोग दिन-रात लाइक और बधाई देते रहें!
फेसबुक का समाज एक ‘पढ़ा-लिखा नंगा समाज’ है। इसकी नंगाई को देखिए, मुस्कुराए, लाइक कीजिए, बधाई दीजिए और सेलिब्रेट कीजिए। – अंशुमाली रस्तोगी