क्या ख़्वाहिश है तुम्हारी
स्वतंत्रता…
एक बड़ा सा पिंजड़ा बनवाया उसने
अब पूरी स्वतंत्रता से कैद हो घूमों
उसमें
क्या चाहती हो तुम
प्रेम…
हाँ
ठोंक दीं कई कीलें उसने उसके अहसासों की दीवार पर
अब जड़ है वो प्रेम में
क्या कुलबुलाता है तुममें
मेरी पहचान…
तो दे दिये है ना उसने
बड़े – बड़े नाम
बड़े बड़े इलज़ाम
कैसे जीना चाहती हो तुम
नदी की तरह …
तो बाँध तो लिया है
तुम्हे अपेक्षाओं के बांध से
जहाँ तुम्हरा टकराव होता
क्या होना चाहती तुम
दूब…
उठा लेती सर जो बार बार तूफानों में
हाँ तो देखना जब ज्यादा विस्तार होगा तुम्हारा या बढ़ेगी तो काट फेकेंगे ये सब फिर तुम्हे
ओह
तुम तो पारदर्शी हो
मेरे अंतर्मन !!
- गार्गी आर्य