वायरल इशू में आपकी बात
मैंने एक बड़े अख़बार का संपादकीय पढ़ा। बहुत पहले मैंने निर्णय लिया था की मै फेसबुक पर कुछ रियेक्ट नहीं करूंगा। लेकिन आज लगा मन की भड़ास निकाल ही देता हूँ।
वैसे तो इन तीनो का आपस में कोई सम्बन्ध नही है, लेकिन ये तीन बातें मेरे दिमाग में आयी संपादकीय पढने के बाद। हमेशा देखा है समाचार माध्यम समस्या का विकराल रूप तो दिखाते है, उससे खबर मसालेदार बनती है और बिकती है। परन्तु न कभी समस्या का कारण जानने का प्रयास होता है, न ही कोई समाधान सुझाते हैं।
सबसे पहले खाप पंचायत। बहुत सारे पत्रकार या तो उस जमीन से जुड़े नहीं है या अपनी जमीन छोड़ चुके हैं। गाँव का हर स्त्री-पुरुष एक दूसरे को किसी न किसी पारिवारिक रिश्ते से सम्बोधित करता है, छोटा है तो चाचा, ताऊ, बाबा इत्यादि, बड़ा है तो लाल्ला, लाल्ली, बेटा, बेटी। किसी महिला को सम्बोधित करता है तो बुआ, ताई, चाची इत्यादि।
किसानो का ज्यादातर समय खेतों में गुजरता है। महिलाएं घरों में महफूज़ रहती थी, कि पड़ोस में चाचा, ताऊ, भतीजा कोई न कोई तो है। आधुनिकता की अंधी दौड़ मैं सारे रिश्ते सिमट गए प्रेमी प्रेमिका में। जब पड़ोस का ही कोई लड़का जो भाई-चाचा हुआ करता था परिवार की लड़की को लेकर भाग गया तो जो एक सुरक्षा कवच था टूट गया। समाज में आपसी विश्वास ख़त्म हो गया और उनके मन में एक भय व्याप्त हो गया पता नहीं कौन कब किसको लेकर भाग जाए।
इसी बीच जो अपने प्यार का इज़हार नहीं पर पाते थे या जिन्हें लडकियां भाव नहीं देती थी, मौका पाते ही छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य कर्म से नहीं चूकते। नेताओं के बयान “लड़कों से गलतियाँ हो ही जाती हैं” उनके लिए उत्प्रेरक का काम करती हैं। पुलिस और थानों के बारे में लिखने लगे तो जगह कम पड़ जायेगी।
शहर में आकर तो कोई ताऊ चाचा भी देखने वाला नहीं है, इसलिए मौका चूकने की कोई वजह ही नहीं। इन्टरनेट और स्मार्ट फ़ोन ने पोर्न को सबके हाथ में पहुंचा दिया। आग भड़कने लगी लेकिन कोई जायज समाधान नहीं मिला तो बात रेप और गैंग रेप पर भी पहुँच गयी।
जख्म था सुरक्षा कवच को टूटने का, जद्दोजहद थी उसे बचाने की। लेकिन उसे क्रूर हिंसा का नाम दिया। कुछ निर्णय गलत रहे होंगे, जरूरत थी उन्हें ठीक करने की। मैंने अपने कई मित्रों से इस पर कुछ लिखने का कहा, लेकिन उससे समाचार नहीं बिकता। समाचार बिकते हैं, खाप पंचायत के निर्णय से, बलात्कार से, और कैंडल मार्च निकालने से।
अब बात कर लेते हैं मोब लिंचिंग की, इसमें एक बात और जोड़ देता हूँ पुलिस पर बढ़ते हमलों की।
मेरे एक परिचित वकील का दावा है की आप मौका-ए-वारदात पर न पकडे जाओ और आपकी जेब में पैसे की कमी न हो तो मै आपको जीवन भर जेल नहीं जाने दूंगा। उसके दावे के कितना दम है ये तो दीगर बात है, लेकिन आम आदमी के दिमाग में ये छप चुका है। अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे उनकी बात को पुष्ट करने के लिए। पुलिस और कानून पर विश्वसनीयता ख़त्म होती जा रही है, इसलिए अब पब्लिक मौका-ए-वारदात ही अपना फैसला सुना देती है। जब सौ-सौ रुपये में आप छोटे मोटे काम करा लेते है तो बड़े काम में ज्यादा पैसा लग जाएगा, इसलिए डर कैसा। तो चाहे शराब माफिया हो या खनन माफिया या गौ तस्कर गाहे बगाहे पुलिस पर हमला कर देते है। जरूरत है सिस्टम को दुरुस्त करने की, लोगों में विश्वास पैदा करने की। बाकी सम्पादकीय लिखने से किसका भला होता है, सभी जानते हैं।
- सुशील राणा